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कर्म-विज्ञान का यथार्थ मूल्य-निर्णय
तत्पश्चात् यह प्रश्न उठना स्वाभाविक था कि 'यदि समस्त दुःखों से सर्वथा मुक्ति प्राप्त हो सकती है तो उसके क्या-क्या उपाय हैं ? इस प्रश्न का विस्तृत समाधान देने के लिए उन्होंने उठने वाले दो निषेधात्मक और दो विधेयात्मक प्रश्न तथा उनके क्रमशः चार उत्तर प्रस्तुत किये हैं। जैसे (१-२) नये दुःखों के आने के कारण और उन्हें रोकने के उपाय क्या हैं? तथा (३-४) पुराने दुःखों के क्या कारण हैं? और उन्हें नष्ट करने के क्या उपाय हैं? इन चारों प्रश्नों के उत्तर में वीतराग महर्षियों ने क्रमशः आस्रव और संवर, तथा बन्ध और निर्जरा, ये चार तत्त्व प्रस्तुत किये हैं। 2
इस प्रकार कर्म-विज्ञान के सन्दर्भ में आप्त सर्वज्ञ मनीषियों ने इन नौ तत्त्वों को प्रस्तुत करके कर्मविज्ञान की उपयोगिता और विशेषता का प्रतिपादन किया है। लोकोत्तर रोगी के लिए सात तथ्य जानना-मानना आवश्यक
कर्म-विज्ञानमर्मज्ञ कर्मरोग से सर्वथा मुक्ति एवं पूर्ण स्वस्थता प्राप्त करने के साधक-बाधक नौ या संक्षेप में सात तत्त्वों का उल्लेख करते हैं। कर्ममुक्ति के साधक को इन सात (या पुण्य-पाप को लेकर नौ) तत्त्वों को सम्यक् प्रकार से जानना, मानना और श्रद्धा करना आवश्यक है।
एक लौकिक रोगी को रोग से सर्वथा मुक्त होने के लिए निम्नोक्त सात तथ्यों को जानकर उन पर श्रद्धा करना आवश्यक होता है - ( 9 ) नीरोग - स्वस्थ रहना मेरा मूल स्वभाव है। (२) किन्तु वर्तमान में मेरे स्वभाव एवं स्वास्थ्य के विरुद्ध कौन सा रोग आ गया है ? (३) इस रोग का कारण क्या है ? (४) इस रोग का निदान तथा (५) इस रोग को रोकने का उपाय अपथ्य सेवन का निषेध, एवं (६) पुराने रोग के समूल नाश के लिए उपाय औषध-सेवन तथा (७) नीरोगी अवस्था का स्वरूप क्या है ?
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जिस प्रकार लौकिक रोग से मुक्त होने के लिए तथा पूर्ण नीरोग अवस्था प्राप्त करने में सफलता के लिए पूर्वोक्त सात तथ्यों को जानना, मानना और श्रद्धा करना आवश्यक है, उसी प्रकार आत्मा के अनन्तसुखरूप कार्य या अनन्त ज्ञान-दर्शन-शक्ति `आदि रूप पूर्ण स्वरूपदशा, स्वस्थदशा प्राप्त करने जैसे लोकोत्तर कार्य में सफलता के लिए अर्थात् भवभ्रमण कराने वाले कर्मरोग से सर्वथा मुक्त होने के लिए निम्नोक्त सात तथ्यों को जानना, मानना और उन पर श्रद्धा करना अनिवार्य है।
(१) मैं, जिसे पूर्ण आत्मिक सुख एवं स्वास्थ्य चाहिए वह (जीव ) क्या है ? (२) सम्पर्क में आने वाला विजातीय पदार्थ (अजीव ) क्या है ? (३) दुःख और अशान्ति के आगमन (कर्म आनव) के कारण, (४) दुःख और अशान्ति का रूप (कर्मबन्ध) क्या है ?
१. देखें जैनतत्त्वकलिका में प्रस्तुत मन्तव्य पृ. ७७-७८
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