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ही बनेगा, घोडा मृत्यु पा कर घोड़ा ही बनता है। गधा मृत्यु पा कर गधा ही बनता रहेगा। चाहे वह हजार लाख या करोड़ों अरबों जन्म करे तो भी वह बार-बार घोड़ा ही बनता जाएगा। गधा गधा ही बनता रहेगा, ऐसी एक गतिवाद पक्षवालों की मान्यता है। इनका कहना है कि जीव का एक गति से दूसरी गति में गत्यन्तरजात्यन्तर नहीं होता है।
प्रश्न ऐसा खड़ा होता है कि...यदि घोड़ा मृत्यु पा कर पुनः घोड़ा ही बनता है तो प्रथम घोड़ा बना ही कहां से? अनादि काल से उस जीव का घोड़े के स्वरूप में ही अस्तित्व मानना पड़ेगा । और ऐसा मानेंगे तो वह जीव घोड़े के स्वरूप में कैसे आया? कब आया? उस आत्मा का एकेन्द्रिय पर्याय से पंचेन्द्रिय पर्याय तक विकास हुआ कैसे? फिर तो उत्थान और पतन का सिध्दान्त ही समाप्त हो जाएगा। विकासवाद का भी अस्तित्व नहीं रहेगा। दूसरी तरफ सीधा ही जीव पंचेन्द्रिय पर्याय में स्थलचर के रूप में कहाँ से आ गया? जबकि पंचेन्द्रिय पर्याय में अनन्त जीव नहीं है। अनंत गुनी संख्या एकेन्द्रिय में है। एकेन्द्रिय पर्याय से जीव का धीरे-धीरे विकास होता हुआ जीव अंत में पचेन्द्रिय पर्याय में आता है। आगे पंचेन्द्रिय पर्याय में मनुष्य बनना अन्तिम विकास है। विकासवाद समाप्त हो गया तो फिर किसी का मोक्ष भी नहीं होगा। कुछ भी नहीं! तो फिर धर्म-करना या कर्मक्षय करना सब कुछ निरर्थक हो जाएगा। संसार एक स्थिर स्वरूप में मानना पड़ेगा। फिर तो पाप-पुण्य निष्फल हो जायेंगे। पापकर्मानुसार कोई नरक में जाए और फल भोगे यह भी नहीं रहेगा। उसी तरह किए हुए पुण्यानुसार कोई स्वर्गादि देवगति में जायेगा यह भी नहीं रहेगा। तो फिर क्यों कोई पाप-पुण्य करेगा? स्वर्गवास लिखना भी निरर्थक होगा। मूर्खता होगी। इस तरह सैंकड़ो विसंगतियाँ आयेगी। कर्मवाद भी नहीं रहेगा और ईश्वर कर्तृत्ववाद भी नहीं रहेगा। क्या करेगा ईश्वर? जबकी सृष्टिकर्ता और फलदाता दोनों स्वरूप में ईश्वर को मानने वालों ने माना है। परन्तु ऐसी स्थिति में ईश्वर की कोई उपयोगिता ही नहीं रहेगी। ईश्वर निष्क्रिय-निरर्थक सिध्द हो जायेगा, तो क्या किया जाय? इसका जगत् कर्तृत्ववादी के पास कोई उत्तर नहीं रहेगा। फिर प्रश्न यह उठेगा कि ऐसी नित्यभावनामयी सृष्टि ईश्वर की निरर्थकता और निष्क्रियता में कैसे बनी? कब बनी? क्यों बनी? किसने बनाई ? बनाई तो फिर प्रलय का प्रश्न ही नहीं खड़ा होता! बनाई तो फिर क्यों पहले से किसी को एकेन्द्रिय में रखा और क्यों किसी को पंचेन्द्रिय में रखा? अच्छा जिसको पंचेन्द्रिय मनुष्य में भी रखा उसका भी स्थान वहां निष्फल है। करना-धरना तो कुछ नहीं। चूँकी परिवर्तन तो सम्भव ही नहीं है। फिर क्या करना है? क्यों करना है? ईश्वरोपासना भी करके क्या फायदा? अतः यह पक्ष सम्भव नहीं है। युक्तिसंगत नहीं है।' कर्म की गति नयारी