Book Title: Karm Ki Gati Nyari Part 01
Author(s): Arunvijay
Publisher: Mahavir Rsearch Foundation Viralayam

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Page 233
________________ त्रिकालज्ञानी सर्वज्ञ : केवलज्ञानी सर्वज्ञ भगवंत त्रिकालज्ञानी होते हैं। भूत-वर्तमान तथा भविष्य के तीनों काल का ज्ञान केवली को एक समय एक साथ होता है । अतः एक ही व्यक्ति के भूतकाल के अनंतभवों को भी जानते हैं। देखते है । कहना क्रमभावि है । चूंकि शब्दोत्पत्ति क्रमभावि है । शब्द से कहने में क्रम की अपेक्षा अवश्य रहती है। हम भी एक हॉल में बैठे हुए ५-१० हजार लोगों को एक साथ देख सकते हैं जान सकते हैं परंतु यदि कहना होगा तो शब्द के माध्यम से ही सबके नाम कह सकेंगे, और शब्दोत्पत्ति मुंह से क्रमशः होती है । अ के बाद ब, फिर क, फिर ड, फिर उसके बाद ट, फिर उसके बाद म इस तरह कहने में क्रम की अपेक्षा होने से काल (समय) जरूर लगता है। परंतु केवलज्ञानी एक एक जीव के सबके भूतकाल के अनंत भव अच्छी तरह जानते हैं । वर्तमान अच्छी तरह जानते हैं, तथा भविष्य क्या है कैसा होने वाला है उसके घटक मूल द्रव्य को जानते हैं । यह वस्तु वर्तमान में जो है इसके पहले भूतकाल में कैसी थी ? क्या थी ? इस तरह इस मूल द्रव्य की भूतकाल में कितनी पर्यायें हो चुकी है? तथा भविष्य में इसी द्रव्य की और कितनी पर्याएं होगी ? इत्यादि सब अच्छी तरह जानते हैं । सारा ज्ञान एक साथ होता है । उदाहरणार्थ सोना एक द्रव्य है। सोने की वर्तमान पर्यांय अंगूठी है। इसके पहले क्या थी? हार था, कंगन था । या जो जो भी पर्याएं - अवस्थाएं - आकृतियां थी वे सब सर्वज्ञ जानते हैं । तथा अब भविष्य में आगे क्या क्या पर्यायें बनेगी ? सब जानते हैं । अतः केवलज्ञानकेवलदर्शन त्रैकालिक है। तीनों काल का अनंतानंत ज्ञान इसमें भरा पड़ा है। ‘हस्तामलकवत् प्रत्यक्षं ज्ञानं केवलज्ञानम् ' । हस्त 1 हाथ, = आमलक = आंवला । हाथ में आंवला या गेंद जो भी हो उसे हम चारों तरफ से रंग- आकार. साइज आदि एक साथ जिस तरह देख सकते हैं उससे भी अनंत गुना ज्यादा ज्ञान सर्वज्ञ केवलज्ञानी को होता है । केवली को मानों हाथ में अनंत ब्रह्मांड हो और चारों तरफ से अनेक अपेक्षाओं से, अनेक दृष्टिकोण से स्पष्ट दिखाई देता है, अच्छी तरह जानते हैं। ऐसा केवलज्ञान का स्वरूप है । 'अनंत ज्ञान' क्यों कहा ? केवलज्ञान को अनंत ज्ञान क्यों कहा है ? यहां अनंत शब्द का प्रयोग करके ‘अनंतज्ञान' क्यों कहा है ? आकाश अनंत है। लोक- अलोक अनंत है । सारा ब्रह्मांड अनंत है। इस समस्त लोक के अंदर जीव अनंत है। पुद्गल द्रव्य के पौद्गलिक पदार्थ अनंत है । उसी तरह एक एक पदार्थ के अनंत अनंत धर्म है। 'अनंत धर्मात्मकं वस्तु' अनंत होती है। तथा एक एक द्रव्य की अनंत पर्यायें होती है । अतः केवलज्ञान से जो केवली भगवंत अनंत द्रव्यों के अनंत पर्यायों को जानते हैं कर्म की गति नयारी २१६

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