Book Title: Karm Ki Gati Nyari Part 01
Author(s): Arunvijay
Publisher: Mahavir Rsearch Foundation Viralayam

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Page 232
________________ हैं इसकी चर्चा दूसरे प्रवचन में कर चुके हैं। अतः जैन दर्शन सर्वज्ञ परमात्मा को केवलज्ञान से सर्वव्यापी मानता है। जिसे केवलज्ञान हो जाता है ऐसे केवली सर्वज्ञ कहलाते हैं। ‘सर्व जानातीति सर्वज्ञः' जो जगत् के अनंत द्रव्यों को तथा एक एक द्रव्य की अनंत पर्यायों को जानते हैं वे सर्वज्ञ है। चाहे सर्वज्ञ कहें या अनंतज्ञ कहें या केवली कहें सभी समानार्थक शब्द हैं। अतः बात एक ही है। केवलज्ञानी जो तिर्छालोक के मध्य जम्बुद्वीप में बिराजमान है वे अपने स्थान पर बैठे बैठे अनंत लोकालोक प्रत्यक्ष देख रहे हैं। जान रहे है । उसी तरह सिद्धशिला पर बिराजमान सिद्ध केवली भी अपने अनंत ज्ञान से अनंत लोकालोक देखते हैं जानते हैं । सूर्य जैसे स्वप्रकाश किरणों से व्याप्त होता है वैसे ही केवली भी अपने अनंत ज्ञान से लोकोलोक व्यापी हो जाते हैं। अतः वे ज्ञानव्यापी कहे जाते हैं। इसलिए सर्वज्ञ के ज्ञान के बाहर लोक या अलोक का एक परमाणु भी रह नहीं सकता । एक परमाणु भी उनके अनंतज्ञान से अछूता नहीं रह सकता। अनंत असीम अलोक का एक परमाणु भी रह नहीं सकता। अनंत असीम अलोकाकाश का एक आकाश प्रदेश भी उनके ज्ञान के बाहर अछूता नहीं रह सकता। इसीलिए जबकि केवली ने यह कहा कि अलोक में जीव या जड़ पुद्गल कुछ भी नहीं है। एक परमाणु भी अलोक में नहीं है। यह कब कहा? देखकर जानकर फिर कहा। निगोद में अनंतानंत जीव है, असंख्य गोले हैं, और एक एक गोले में अनंत जीव है यह कब कहा? जब अनंत केवलज्ञान से जाना तथा केवलदर्शन से देखा तब कहा । वे सूक्ष्म साधारण वनस्पतिकाय जो निगोद रूप कहलाते हैं और जब वे ही स्थूल (बादर) साधारण वनस्पतिकाय बन जाते है तब स्थूल आकार से दृष्टिगोचर होते हैं वे आलु, प्याज, लहसुन, गाजर, अदरक, शकरकंदादि के रूप में सामने आते हैं। वे अनंतकाय है। अनंत + काय = अनंतकाय कहलाते हैं। जीवों की संख्या उनमें अनंत है और रहने के लिए कायाशरीर एक है। अतः उन अनंतकाय,पदार्थों में अनंत जीव रहते हैं जो खाद्य नहीं है, वयं है। यह तीर्थंकर सर्वज्ञों ने कहा है। अनंतदर्शन से देखा तब कहा। अतः अलोक में या लोक में कुछ भी है यह कहने के लिए भी जानना और देखना आवश्यक है तभी है 'है' यह कहा जा सकता है। उसी तरह अलोक में कुछ भी नहीं है सिवाय एकमात्र औकाश के । यह भी कहने के लिए अनंत केवलज्ञान की ही संपूर्ण आवश्यकता है। जाने-देखे बिना कहना संभव नहीं है। यदि कह दे तो गलत सिद्ध हो सकता है। अतः सर्वज्ञों के सिद्धांत आज दिन तक अकाट्य रहे हैं क्यों? क्योंकि अनंत केवल दर्शन से जैसा देखा है, अनंत ज्ञान से जैसा जाना है वैसा ही प्रभु ने वीतरागता से जगत् के समक्ष कहा है। बताया है। अतः असत्य के रत्तीभर अंश की कल्पना भी नहीं की जा सकती। -कर्म की गति नयारी

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