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के अभाव में निरर्थक सिद्ध हो जाएगा । दूसरी तरफ सामग्री को स्वीकारते हैं तो भी ईश्वर का कृतिमत्व निरर्थक-निष्प्रयोजन सिद्ध हो जाता है। चूंकि जो सामग्री या उपकरण के रूप में जीव-कर्म को स्वीकारते हो वे ही परस्पर संयोग-वियोग से संसार की विचित्रता का निर्माण कर लेते हैं। जीव स्वयं भी सक्रिय सचेतन द्रव्य है, फिर ईश्वर के कृतिमत्व की आवश्यकता ही कहाँ पड़ी? अतः जीव कर्म संयोग जन्य वैचित्र्य रूप संसार के लिए ईश्वर को कारण मानना युक्ति संगत भी नहीं लगता।
दूसरी तरफ ईश्वर ही जीवों के पास शुभाशुभ कर्म कराये और फिर वही उसके शुभाशुभ कर्म का फल देने वाला बने । सिर्फ अपने ईश्वरत्व-स्वामित्व की रक्षा के लिए फलदाता बने, यह द्रविड प्राणायाम क्यों करते हैं ? विष्टा में हाथ-पैर गंदा करके फिर गंगा में धोने के लिए काशी यात्रा करना यह कहां तक यक्ति संगत है?
दूसरी तरफ 'जीवो ब्रह्मैव नाऽपर.' या 'जीवो ममैवांऽशः' जीव ब्रह्म स्वरूप ही है कोई अलग नहीं है। या जीव मेरा ही अंश है अन्य नहीं है। यह कहने वाले भी जब सृष्टिकर्ता ईश्वर को फलदाता भी कहते हैं तो ईश्वर फल देगा किसको? जबकि उससे भिन्न तो जीव कोई है ही नहीं। अच्छा जब ईश्वरातिरिक्त जीव कोई है ही नहीं तो फिर कर्म किये किसने? करनेवाला ही नहीं है और फिर भी कर्म मानना और उसके आधार पर फल दाता ईश्वर है यह मानना अभाव पर भाव की परम्परा मानने जैसा है। या रस्सी को सर्प मानने का भ्रम ज्ञान है। तो क्या भ्रम ज्ञान और ब्रह्म ज्ञान में कोई अन्तर ही नहीं है ? दूसरी तरफ ईश्वर को फलदाता मानकर भी अनुग्रहनिग्रह समर्थ भी मानना कहां तक सुसंगत है ? तो फिर करुणावान दयालु गुण प्रधान ईश्वर सभी जीवों पर एक साथ अनुग्रह क्यों नहीं कर देता? यदि अनुग्रह नहीं करता है तो उसकी करुणा निरर्थक जाएगी। दूसरी तरफ दानवी सृष्टि असूर आदि भी ईश्वर द्वारा ही उत्पन्न हुए हैं ऐसा मानते हैं तो फिर ईश्वर ने उनका निग्रह क्यों नहीं किया? पहले दानवों को उत्पन्न करना और फिर निग्रह करना। फिर वही बात । विष्ठा में हाथ बिगाडो और धोने के लिए काशी गंगा जाओ। ईश्वर जब सर्वज्ञ थे, सर्व वेत्ता थे, सब कछ जानते थे तो फिर ईश्वरवाद जगत कर्तत्ववाद न स्वीकारने वाले और इसका विरोध करने वाले हमारे जैसों का क्यों निर्माण किया है ? क्या यह ईश्वर की भूल नहीं है ? यदि आप ईश्वर की सृष्टि में भूल निकालते हैं तो ईश्वर की सर्वज्ञता चली जाएगी। फिर तो भूल करें वह भी भगवान और भगवान भी भूल करता है यह स्वीकारना पड़ेगा। या हम ऐसा कहेंगे कि हमारा क्या कसूर है? ईश्वर हमारे द्वारा ही यह विरोध करवा रहा है। हम तो निर्दोष हैं। कठपुतली की तरह हमको नचाता हुआ ईश्वर ही हमारे द्वारा यह करवाता है तो ईश्वर ही कारण ठहरेगा। .
ईश्वर को कैसा माने- इस द्विधा में आप पड़े हैं। अब इस भंवर में से बाहर कर्म की गति नयारी