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कर्माधीन जीव इन्द्रियों की सहायता से देखता-सुनता-सुंघता हैं। देखने-सुनने की क्रिया तो जीव ही करता है। परंतु देखने में आंख सहायक बनती है। इन्द्रियों के जरिये देखा-सूंघा जाता है। आत्मा शरीर में न हो और इन्द्रियां सभी पूरी हो तो वे इन्द्रियां देखने-सुनने आदि की क्रिया नहीं कर सकती। अतः मुख्य कर्ता चेतन जीव है। शुभ-अशुभ क्रिया से कर्म :
क्रिया का कर्ता चेतन जीव है। क्रिया में साधन रूप शरीरादि है। इन सबके माध्यम से तथाप्रकार की भिन्न भिन्न क्रियाएं होती है। शरीर के द्वारा हलन-चलन, गमन-आगमन, निद्रा-जागृति, आहार-निहारादि की सभी क्रियाएं शरीर के माध्यम से होती है। शरीरधारी जीवों की ये प्रमुख क्रियाएं है। इन्द्रियों के माध्यम से जीव देखने-सुनने-सूंघने-चखने-स्पर्श करने की क्रिया करता है। ये पांचों इन्द्रिया २३ प्रकार के वर्ण-गंध रस-स्पर्श-ध्वनि आदि क्रिया में कारक है। पांच इन्द्रियों के मुख्य २३ विषय है। वर्ण-५+गंध-२ + रस-५,+स्पर्श-८,+ध्वनि-३=२३। इन २३ विषयों की क्रिया पांच इन्द्रियों के माध्यम से होती है। ये पांचो इन्द्रियां २३ विषयों का ज्ञान कराती है, तथाप्रकार के वर्णादी के ज्ञान में सहायक है अतः ज्ञानेन्द्रियां कहलाती है। वचनयोग-भाषा बोलने की क्रिया में कारण रूप है। वचन योग के माध्यम से व्यक्त-अव्यक्त प्रकार की भाषा जीव बोलता है । भाषा व्यवहार भी संसार में बहुत आवश्यक क्रिया है। तीसरा है-मनोयोग । मन से सोचने-विचारने की क्रिया होती है। किसी भी वस्तु या व्यक्ति के बारे में सोचना-विचारना पड़ता है। यह काम जीव मन के माध्यम से करता है। जीव ही तथा प्रकार की क्रिया के लिए इन साधनों को निर्माण करता है। तभी इनके माध्यम से तथाप्रकार की क्रिया कर सकते है। इन क्रियाओं में शुभ भी होती है और अशुभ भी होती है। दोनों प्रकार की क्रिया का कर्ता चेतन जीव है, और सहायक करण-माध्यम-काया-वचन तथा मन है। इन्हीं के जरीए आत्मा कर्म से संसक्त होती है। उमास्वाति महाराज ने तत्त्वार्थाधिगम सूत्र में कहा है कि - "काय-वाङ मनः कर्मयोगः'। काया-वचन और मन के द्वारा कर्म का संयोग होता है। तथाप्रकार की क्रिया करता हुआ जीव कर्म से संयोग करता है। कार्मण वर्गणा के पुदगल परमाणुओं का आत्मा से संयोग होता है। यह कर्म योग आगे बंध में अच्छी तरह बंदकर एक रस हो जाता है। क्रिया परक कर्म की व्याख्या :
___ कर्म एक शब्द है। संस्कृत के धातुकोष की “डुकिंग-करणे' - क्रि = करणे धातु से कर्म शब्द बना है। अतः कर्म क्रिया परक है। क्रिया विशेष से जन्य है।अतः कर्म की क्रिया परक व्याख्या करते हुए देवेन्द्रसुरि म. ने प्रथम कर्मग्रंथ में
कर्म की गति नयारी