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है वैसा चक्षु तथा मन के विषय में नहीं होता है । उदाहरणार्थ- स्पर्शेन्द्रिय, रसनेद्रिय (जीभ) घ्राणेन्द्रिय तथा श्रवणेन्द्रिय (कान) ये सभी अपने अपने विषय की वस्तु को प्राप्त करके ज्ञान करती है । वस्तु का चमड़ी से स्पर्श होगा तभी ही स्पर्शेन्द्रिय जानेगी कि यह ठंड़ा है या गरम? परंतु दूर से ही नहीं जानेगी। जीभ पर यदि वस्तु रखेंगे तो ही खट्टे-मीठे आदि रस का ज्ञान होगा, नाक के पास लाकर सूंघने से ही सुगंध - दुर्गंध का ज्ञान होगा। उसी तरह शब्द- ध्वनि आकर कर्णपटल पर टकराएगी तो ही शब्द का ज्ञान होगा अन्यथा नहीं । परंतु अप्राप्यकारी चक्षु के लिए यह नियम लागू नहीं होता । दूर पड़ी हुई वस्तु का भी चक्षु ज्ञान कर लेती है । उसी तरह दूर पड़ी हुई वस्तु के बारे में मन सोच सकता है । विचार करके ज्ञान प्राप्त कर लेता है । अतः ये दोनों अप्राप्यकारी गिने जाते हैं ।
व्यंजनावग्रह चक्षु और मन का नहीं होता, क्योंकि चक्षु और मन अप्राप्यकारी है, जबकि व्यंजनावग्रह प्राप्यकारी है । उपकरण इन्द्रियां शब्दादि रूप में परिणत पुद्गलों का गाढ सम्बन्ध हो तभी व्यंजनावग्रह कहलाता है । मन को तथा चक्षु को ग्रहण करने योग्य पदार्थों से मन और चक्षु के साथ गाढ संबंध नहीं होता है इसलिए मन और चक्षु के अलावा ४ हैं इसलिए व्यंजनावग्रह भी चार प्रकार का होगा । मतिज्ञान के २८ भेद :(१) स्पर्शेन्द्रिय के (२) रसनेन्द्रिय के
(३) घ्राणेन्द्रिय के
(४) चक्षुइन्द्रिय के
(५) श्रवणेन्द्रिय के (६) मन के
-:
अवग्रह
हा अपाय
धारणा
अवग्रह
ईहा
अपाय
धारणा
अवग्रह
ईहा
अपाय
धारणा
अवग्रह
अपाय
धारणा
अवग्रह ईहा
अपाय धारणा
अवग्रह
हा
अपाय
धारणा
(पांच इन्द्रियां तथा छट्ठा, मन ये - ६, तथा अवग्रहादि ४ अतः ६ x ४ = २४ तथा ४ इन्द्रियों के व्यंजनावग्रह के ४ भेद । अतः २४ + ४ = २८ इस तरह ये
२८ भेद मतिज्ञान के मुख्य हुए।)
विस्तार से मतिज्ञान के ३४० भेद :
:
बहुबहुविधक्षिप्रानिःसृतानुक्तध्रुवाणां सेतराणाम् ।।१ - १६ ।। तत्त्वार्थाधिगम सूत्र के इस सूत्र से उमास्वाति महाराज ने बहु-बहुविध आदि के १२ भेद और बताए हैं । अर्थात् इन बारह तरीके से अवग्रहादि प्रमाण में कम-ज्यादा आदि रीत से ग्रहण होते हैं ।
(१) बहु -
बहुत प्रकार से ज्ञान हो उसे 'बहु' भेद कहा है ।
(१९३
- कर्म की गति नयारी