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अर्थावग्रह का असाधारण कारण है। यह व्यंजनावग्रह चक्षु और मन का नहीं होता। व्यक्त ग्रहण अर्थावग्रह कहलाता है और अव्यक्त ग्रहण व्यंजनावग्रह कहलाता है। एक नियम ऐसा है कि-न चक्षुरनिन्द्रियाभ्याम् - अर्थात् चक्षु तथा मन के द्वारा व्यंजनावग्रह नहीं होता। क्योंकि चक्षु और मन अप्राप्यकारी है। इन्द्रियों का प्राप्याप्राप्यकारित्व :
- इन्द्रियां 1
प्राप्यकारी - ४
अप्राप्यकारी - २
स्पर्शेन्द्रिय रसनेन्द्रिय घ्राणेन्द्रिय श्रवणेन्द्रिय । चक्षु मन ।
(१) प्राप्यकारी इन्द्रियां - इन्द्रियां और विषय के संबंध द्वारा प्राप्त ऐसे विषयभूत शब्दादि वस्तुओं को जाने वे प्राप्यकारि ईन्द्रियां कहलाती है अथवा प्राप्यकारी अर्थात्-स्पष्ट अर्थ को ग्रहण करने वाली। अतः स्पर्शेन्द्रियादि चार इन्द्रियां ही प्राप्यकारी है। जो वस्तु को प्राप्त करके ज्ञान करती है। जैसे-(१) स्पर्शेन्द्रिय से ठंडा, गरम, मृदु, कर्कश आदि स्पर्श का चमड़ी-स्पर्शेन्द्रिय को स्पर्श करके ही वस्तु गरम है या ठंड़ी है यह ज्ञान होगा। सिर्फ दूर से देखने मात्र से ठंडे-गरम का ज्ञान नहीं होगा। (२) उसी तरह रसनेन्द्रिय-जीभ से चख कर ही खट्टे-मीठे, खारे पदार्थों के स्वाद का अनुभव होगा (३) घ्राणेन्द्रिय नासिका (नाक) भी सुगंध-दर्गंध को नाक से ग्रहण करके सूंघकर निर्णय करती है, तथा (४) पांचवी श्रवणेन्द्रिय (कान) भी कर्णपटल पर आए हुए शब्द-ध्वनि के स्पर्श से, ध्वनि ग्रहण करके ज्ञान करती है, अर्थात् इन्द्रियों के प्रति वस्तु की प्राप्ति हो और वस्तु को प्राप्त करके ही ज्ञान करे, जाने वह प्राप्य ज्ञान करती है, अर्थात् इन्द्रियों के प्रति वस्तु की प्राप्ति हो
और वस्तु को प्राप्त करके ही ज्ञान करे, जाने वह प्राप्यकारि इन्द्रियां कहलाती है। वे ४ हैं। अतः इन्हीं चार का व्यंजनावग्रह होता है। नयण-मणोवजियभेयाओ वंजणोग्गहो चउहा । उवघाया-णुग्गहओ, जं ताई पत्तकारीणि ।। (२०४)। विशेषावश्यक भाष्य के इस श्लोक में प्राप्यकारिणि इन्द्रियों का लक्षण बताया है। जिसका ऊपर विवेचन किया है।
(२) अप्राप्यकारी इन्द्रियां-आंख और मन ये दो अप्राप्यकारी इन्द्रियां है। आंख से वस्तु देखने में जरूरी नहीं है कि वस्तु को आंख का स्पर्श करना पड़े। या सोचने में जरूरी नहीं है कि वस्तु को मन से लगाना पड़े। नहीं । वस्तु दूर होते हुए भी आंख दूर से देखकर ज्ञान कर लेती है। जैसा कि प्राप्यकारी इन्द्रियों के साथ होता
कर्म की गति नयारी