Book Title: Karm Ki Gati Nyari Part 01
Author(s): Arunvijay
Publisher: Mahavir Rsearch Foundation Viralayam

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Page 226
________________ अवधिज्ञान के ६ भेद ____(१) अनुगामि - एक जगह से दूसरी जगह जाने पर भी जो अवधिज्ञान आंखों की तरह साथ ही रहे उसे अनुगामि कहते हैं। तात्पर्य यह है कि जिस जगह जिस जीव को यह अवधिज्ञान प्राप्त होता है वह जीव यदि उस जगह को छोड़कर अन्यत्र भी जावे तो भी अवधिज्ञान साथ ही रहता है। उतना ही रहता है। किसी भी क्षेत्र से समान रूप से संख्यात-असंख्यात योजन तक देख सकता है, जान सकता है। (२) अननुगामि - उपरोक्त अनुगामि से उल्टा अर्थ अननुगामि का है। अर्थात् जिस प्रदेश में, क्षेत्र में, जगह में अवधिज्ञान प्रकट हुआ हो उस क्षेत्र को छोड़कर यदि वह जीव अन्य स्थान पर जाता है तो वह अवधिज्ञान साथ नहीं रहता, चला जाता है। वह अननुगामी अवधिज्ञान कहलाता है। (३) वर्धमान - वर्धमान का अर्थ है वृध्दिगत, बढ़ता हआ। जो अवधिज्ञान एक बार होने के बाद भी परिणाम विशुध्दि के साथ द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव की मर्यादा के लिए दिन दिन बढ़ता रहे उसे वर्धमान प्रकार का अवधिज्ञान कहते हैं। (४) हीयमान - यह उपरोक्त वर्धमान का उल्टा है। एक बार अवधिज्ञान हो जाने के बाद परिणामों-अध्यवसायों की अशुध्दि के कारण दिन-प्रतिदिन घटता जाय वह हीयमान प्रकार का अवधिज्ञान कहलाता है। (५) प्रतिपाति – प्रतिपाति का अर्थ है गिरना, नष्ट होना । जो अवधिज्ञान प्रकट होकर, जैसे-दीपक एकाएक हवा के झोंके से बुझ जाय उस तरह-एका-एक गायब हो जाय, चला जाय या नष्ट हो जाय उसे प्रतिपाति अवधिज्ञान कहते हैं। . (६) अप्रतिपाति- यह उपरोक्त पांचवे प्रकार से बिल्कुल उल्टा है। अप्रतिपाति = नष्ट न होने वाला । जो अवधिज्ञान एक बार प्रकट होकर कभी भी नष्ट न हो, वह अप्रतिपाति अवधिज्ञान कहा जाता है। यह केवलज्ञान के प्रकट होने के अंतर्मुहर्त पहले प्रकट होता है,उसके बाद केवलज्ञान हो जाता है तो यह उसमें समा जाता है। अतः इसके नष्ट होने का प्रश्न ही नहीं आता। अतः अप्रतिपाति अवधिज्ञान को ही परमावधि अवधिज्ञान कहते हैं। _ अवधिज्ञानी कम से कम अनंत रूपी द्रव्यों को जानते-देखते हैं। उत्कृष्ट से संपूर्ण रूपी द्रव्यों को भी जान-देख सकते हैं। असंख्य योजन तक लोक जान सकते हैं। अलोक भी जान सकते हैं। काल की दृष्टि से असंख्य उत्सर्पिणीअवसर्पिणी अतीत-अनागत काल के रूपी पदार्थो को जान सकते हैं। इसमें इन्द्रियां तथा मन की आवश्यकता नहीं रहती है। आत्मा स्वयं आत्म प्रत्यक्ष से जानतीदेखती है। (२०९) कर्म की गति नयारी

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