Book Title: Karm Ki Gati Nyari Part 01
Author(s): Arunvijay
Publisher: Mahavir Rsearch Foundation Viralayam

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Page 227
________________ चौथा मन: पर्यव ज्ञान : तीसरे अवधिज्ञान के बाद चौथा क्रम मनः पर्यवज्ञान का आता है । मणपवज्जवनाणं पुण, जणमणपरिचिंतियत्थपागडणं । माणुस खेत्त निबध्दं, गुणपच्चइयं चरित्त्वओ ।।८१० ।। जीवों के व्दारा मन में चिंतित अर्थ को प्रकट करने वाला ज्ञान मनः : पर्यवज्ञान कहलाता है । वह मनः पर्यवज्ञान मनुष्य क्षेत्र प्रमाण विषयवाला है। तथा गुण प्रत्ययिक चरित्रवान् साधु महात्मा को ही होता है । मनः पर्यवज्ञानावरणीय कर्म के क्षयोपशम होने पर यह मनः पर्यवज्ञान प्रकट होता है। इससे संज्ञि - समनस्क - मन वाले पंचेन्द्रिय जीवों के मनोगत भाव को जान सकते हैं। किसी ने मन में क्या सोचा हैं? किस वस्तु का विचार किया है? उसे मनः पर्यवज्ञानी जानकर शिघ्र ही बता सकते हैं । मनः यर्पवज्ञान यह आत्म प्रत्यक्ष ज्ञान है । अतः मनः पर्यवज्ञानी को अपने मन से ज्ञान करने की आवश्यकता नहीं है । मन और इन्द्रियां तो मतिज्ञान तथा श्रुतज्ञान में उपयोग में आती है। आत्म प्रत्यक्ष ज्ञान में मन और इन्द्रियों का कोई उपयोग नहीं है। सीधे आत्मा से ही उत्पन्न होता है । अतः इसे मतिज्ञान या श्रुतज्ञान किसी में भी समाविष्ट नहीं कर सकते हैं । यह स्वतंत्र ज्ञान है । यदि स्वतंत्र नहीं होता और किसी ज्ञान का ही भेद होता तो अलग से स्वतंत्र नहीं बताते । फिर पांच ज्ञान कहां से होते ? ज्ञान पांच है । मनः पर्यवज्ञान भी स्वतंत्र है । इसका कार्य सिर्फ मन वाले संज्ञि पंचेन्द्रिय जीवों के मनोगत भावों को मन की विचारी हुई बातों को जानना मात्र है । जगत में जिन जीवों को मन मिला ही नहीं हैं, जो बिना मन वाले हैं वे एकेन्द्रिय, दोइन्द्रिय, तीनइन्द्रिय, चारइन्द्रियवाले कीड़े-मकोड़े, मक्खी, मच्छर - भंवरे आदि जीवों को मन मिला ही नहीं है, अतः वे असंज्ञि - अमनस्क गिने जाते हैं । उसी तरह पंचेन्द्रिय तिर्यंचं तथा मनुष्य में भी बिना मन वाले असंज्ञि समुर्छिम जीव होते हैं । असंज्ञि जीवों को तो विचार करने का सवाल ही खड़ा नहीं होता अतः उनके मनोगत विचारों को जानने की आवश्यकता ही नहीं रहती । जो संज्ञि समनस्क अर्थात् मनवाले जीव हैं अर्थात् हमारे जैसे मनवाले मनुष्य तथा हाथी, घोड़ा, बैल, बकरी, गाय, भैंस, ऊंट आदि पशु तथा कौआ, मैना, तोता, कबुतर, चिड़ीया आदि पक्षी ये सभी मनवाले संज्ञि जीव है अतः इनके मनोगत भावों को जो जान सके कि इन्हो ने अपने मन में क्या सोचा है ? किस वस्तु के बारे में विचार किया है यह मनः पर्यवज्ञानी अपने मनः पर्यवज्ञान के बल पर बता सकते हैं। बताने में मनः पर्यवज्ञानी को अनुमान नहीं करना पड़ता है। मति श्रुत की मदद नहीं लेनी पड़ती और इन्द्रियां तथा मन का भी उपयोग नहीं करना पड़ता । अतः यह स्वयं स्वतंत्र रूप से आत्म प्रत्यक्ष रूप से स्पष्ट दिखाई देता है कि इसने अपने मन में क्या सोचा है ? किस वस्तु का विचार कर्म की गति नयारी (२१० -

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