Book Title: Karm Ki Gati Nyari Part 01
Author(s): Arunvijay
Publisher: Mahavir Rsearch Foundation Viralayam

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Page 184
________________ और पर का निश्चयात्मक ज्ञान ही प्रमाण कहा गया है। भ्रम-संशय या विपर्यय का निवारक भी प्रमाण ज्ञान है। ज्ञान ही जीव को सही दिशा प्रदान करता है। जीवन की सही दिशा का चयन ज्ञानगम्य है। ज्ञान की वृद्धि सम्यग् श्रद्धा की वृद्धि करेगा। सत्यासत्य का विवेक ज्ञान योग से ही साध्य है। इस तरह ज्ञान की महिमा अपरम्पार है। यह सर्वस्वीकृत बात है इसमें रत्ति भर भी शंका नहीं है। परंतु कैसा ज्ञान चाहिए? यह सोचना होगा। सम्यग ज्ञान और मिथ्या ज्ञान : सम्यग् ज्ञान भी ज्ञान ही है और उससे विपरीत मिथ्या ज्ञान भी ज्ञान के जैसा ही भासता है। सांप को ही सही सांप मानना और अंधेरे में पड़ी टेड़ी-मेढी रस्सी को भी सांप मानना। दोनों ज्ञान ही भासेंगे, परंतु एक सही ज्ञान है जबकि दूसरा भ्रम ज्ञान है। वृक्ष को वृक्ष मानना सम्यग् ज्ञान है परंतु अंधेरे में या दूर से पुरुषाकृति दिखाई देने पर भ्रमवश पुरुष मानना यह संशय ज्ञान है। शुक्तिकायां रजत बुद्धि भ्रमात्मक है। मृगमरीचिका-रेतीले रेगिस्तान में सूर्य की किरणें रेती में चमक पैदा करती है उसे पानी मान लेना यह भ्रम है। हिरन कस्तुरी को बाहर समझकर भटकने लगता है। यह उसका भ्रम ज्ञान है। भ्रम या विपरीत ज्ञानवश भटकना भी दुःखदायि है। ठीक उसी तरह शरीर को ही आत्मा मानने वाले देहात्मवादी नास्तिक कहे जाते हैं। प्राण शक्ति को ही आत्मा मानना, इन्द्रियों को आत्मा कहना या मन को आत्मा कहना या पंचभूत की शक्ति को आत्मा कहना ये सभी मिथ्याज्ञान है। स्वर्ग को ही अपवर्गमोक्ष कहकर व्यवहार करना यह मिथ्याज्ञान है। अधर्म को ही धर्म कहना, हिंसा में ही धर्म मान लेना, पापाचार में ही पुण्य मान लेना, या अधर्म सेवन-पापाचार से सुखी बनने की अपेक्षा रखनी, या अहिंसा, दया धर्म की योग्य व्याख्या न करना, से सभी मिथ्या ज्ञान के प्रकार है। स्वर्ग नरक-पूर्व जन्म-पुनर्जन्म कुछ है ही नहीं । आत्मापरमात्मा कुछ भी नहीं है। लोक-परलोक जैसी कोई वस्तु नहीं है। मोक्ष आदि कुछ नहीं है। कर्म-धर्म की बातें झूठी है। इत्यादि मिथ्या-विपरीत ज्ञान है। तत्त्व की यथार्थता न स्वीकारना मिथ्यात्व है। जहर घातक है और अमृत प्राणदायक है। उसी तरह मिथ्याज्ञान घातक है और सम्यक् ज्ञान तारक है। सम्यक् दृष्टि जीव को मिथ्याज्ञान की बात भी सम्यक् रूप में परिणत होती है, क्योंकि दृष्टि ही तथाप्रकार की सम्यक् होने से वह उसी तरह देखेगा। जबकि मिथ्यादृष्टि की दृष्टि ही विपरीत है अतः सत्य भी असत्य रूप में दिखाई देता है। जैसे जोन्डीस(पीलीया) रोगग्रस्त रोगी को सफेद वस्तु भी पीली दिखाई देती है वैसे ही मिथ्यात्वी को सब कुछ उसकी बुद्धि के अनुसार विपरीत-मिथ्यारूप दिखाई देता है। अतः दृष्टि तथा बुद्धि सम्यग् बनाना ही हितावह है। इससे वृत्ति तथा दृष्टि उभय सम्यग् बनेगा। (१६७ कर्म की गति नयारी

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