Book Title: Karm Ki Gati Nyari Part 01
Author(s): Arunvijay
Publisher: Mahavir Rsearch Foundation Viralayam

View full book text
Previous | Next

Page 196
________________ आत्मा के ज्ञान-दर्शन गुणों का कार्य क्षेत्र भी है। आत्मा सक्रिय द्रव्य है। अतः उसके ज्ञान-दर्शन गुण क्रिया रूप से प्रवृत्त होते हैं।ज्ञान गुण की क्रिया है जानना और दर्शन गुण की क्रिया है देखना। इसलिए दर्शन देखने की क्रिया करता है उसके बाद जानने की क्रिया करता है । इनके बीच का अंतर सूक्ष्म होने से नगण्य गिना जाता है। देखना और जानना यह प्रमुख क्रियाएं है। अब इन क्रियाओं का कर्ता जड़ या अजीव तो हो ही नहीं सकता। चूंकि ज्ञान-दर्शन अजीव जड़ के गुण नहीं है। ये अनिवार्य रूप से चेतन आत्मा के ही गुण है। अतः जिसके गुण है वही चेतन द्रव्य यह क्रिया करेगा। इसलिए जानने-देखने की क्रिया के कर्ता के रूप में भी आत्मा की सिध्दि होती है। ये क्रिया तो प्रत्यक्ष सिध्द है । देखने-जानने की क्रिया प्रत्येक मनुष्य करता है। सिवाय की अंधा देखता नहीं है परंतु कान आदि अन्य इन्द्रियों से पदार्थ को जानने की क्रिया अच्छी तरह करता है। इन्द्रियां क्रिया में सहायक साधन है - माध्यम है। जिनके जरिए देखने-जानने आदि की क्रिया होती है। अतः आंख देखती है। कान सुनते हैं, यह भाषा गलत है यदि सही होती तो मृतक जो शव है उसके भी आंख, कान तो जैसे थे वैसे ही है तो फिर अब वे क्यों नहीं देखते-सुनते ? इसलिए ये इन्द्रियां तो सहायक साधन मात्र है, माध्यम है । अतः चेतनात्मा आंखकान आदि इन्द्रियां के माध्यम से देखती सुनती है । मूल में क्रिया का कर्ता चेतन जीव है। इन्द्रियां कर्ता के रूप में नहीं है। क्रिया में सहायक साधन मात्र है। इस तरह देखने-सुनने-जानने की क्रिया का कर्ता जीव ही कहलाता है । इसमें देखना-जानना आदि क्रिया जीव के ज्ञान-दर्शनादि गुणों का मलिक जीव है। अतः गुणानुरूप दोनों क्रिया का कर्ता भी जीव ही कहलाएगा। देखने जानने की क्रिया का व्यवहार प्रतिदिन मनुष्य-पशु-पक्षी आदि जीवों के जीवन में होता है। अतः यह आत्मा के अस्तित्व को स्वीकारने के लिए प्रत्यक्ष प्रमाण है। इसीलिए प्रत्यक्षादि प्रमाण से आत्मा की सिद्धि होती है । ज्ञान-दर्शनादि आत्मा के गुण है और गुणों का व्यवहार जाननेदेखने की क्रिया के रूप में होता है। ज्ञान के प्रकार : यद्यपि ज्ञान के कोई भेद और प्रकार नहीं हैं क्योंकि सर्व आत्म प्रदेशों में प्रसृत ज्ञान तो एक ही है । परंतु ज्ञानावरणीय कर्मों के आधार पर कितने क्षयोपशम से कितना ज्ञान प्रगट हआ है और कितना ज्ञान दबा हआ है यह जानने के लिए ज्ञान के भिन्न भिन्न पांच भेद शास्त्रकार महर्षियों ने किये हैं । अतः पांच प्रकार विशेषावश्यक भाष्य में तथा नंदी सूत्र आदि आगम शास्त्रों में इस प्रकार बताए गए हैं । आभिणिबोहियनाणं सुयनाणं चेव ओहिनाणं च । तह मणपज्जवनाणं केवलनाणं च पंचमयं ॥ -कर्म की गति नयारी

Loading...

Page Navigation
1 ... 194 195 196 197 198 199 200 201 202 203 204 205 206 207 208 209 210 211 212 213 214 215 216 217 218 219 220 221 222 223 224 225 226 227 228 229 230 231 232 233 234 235 236