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तपस्वी, पंचमहाव्रतधारी साधु महाराज को गुरू मानना यह सम्यग दर्शन है और इससे विपरीत धन-सम्पत्ति कंचन-कामिनी रखने वाले, अव्रती-अविरतिधर को गुरू मानना यह मिथ्यात्व है। सर्वज्ञोपदिष्ट मोक्ष साधक धर्म को सही अर्थ में धर्म मानना यह सम्यग् दर्शन है और इससे विपरीत अधर्म में भी धर्म बुद्धि रखना, संसार पोषक-विषय-कषाय-राग-द्वेषादि में भी धर्म बुद्धि रखना यह मिथ्यात्व है। आत्मा-परमात्मा, पुण्य-पाप, स्वर्ग-नरक, लोक-परलोक, आश्रव-संवर, निर्जरा और बंध, कर्म-धर्म तथा मोक्षादि तत्त्वों पर यथार्थ श्रद्धा है। इन तत्त्वों का जैसा स्वरूप एवं जो अर्थ है उसी स्वरूप एवं अर्थ में इन तत्त्वों को मानना-जानना ही सम्यग् श्रद्धा कहलाएगी। इससे विपरीत या तो इन तत्त्वों को न मानना, न समझना, न जानना या विपरीत अर्थ में मानना-जानना आद्रि मिथ्यात्व कहलाता है। यह मिथ्यात्व कर्म बंध कारक है। मिथ्यात्व कर्म बंधन में मूलभूत कारण है यह बताते हुए कहा है कि
__ पटोत्पत्तिमूलं यथा तन्तुवृन्दं, घटोत्पत्तिमूलं यथा मृत्समूहः । तृणोत्पत्तिमूलं यथा तस्य बीजं तथा कर्म मूलं च मिथ्यात्वमुक्तम् ।। . पट अर्थात् कपड़ा-वस्त्र । कपड़े की उत्पत्ति में जिस तरह तन्तु-धागा कारण है, घड़ा बनाने में मिट्टी जिस तरह कारण है, धान्यादि की उत्पत्ति में जिस तरह उसका बीज कारण है उसी तरह कर्म की उत्पत्ति में मिथ्यात्व कारणभूत है । कर्म बंध में मिथ्यात्व मूल कारण है। मिथ्यात्व की उपस्थिति में कर्म की बड़ी दीर्घ भारी प्रकृतियां बंधती है। ___अविरति - “यथोक्ताया विरतेर्विपरीताऽविरतिः" जिस तरह अहिंसासत्य-अस्तेय-ब्रह्मचर्य-अपरिग्रहादि व्रत कहे गए हैं। इनमें मस्त रहने वाला जीव व्रती कहलाता है। यम-नियम का पालन करने से कर्म बंध नहीं होता। इससे विपरीत हिंसा-झूठ-चोरी-मैथुन सेवन-दराचार-व्यभिचार एवं परिग्रहवत्ति से जीव भारी कर्म बंध करते हैं। कर्म बंध में अविरति भी एक हेतु है। __प्रमाद -'प्रमादः स्मृत्यनवस्थानं कुशलष्वनादरः योग दुष्प्रणिधानं चत्येष प्रमादः' - मोक्षमार्ग की उपासना में शिथिलता लाना और इन्द्रियादि के विषयों में आसक्त बनना यह प्रमाद है। विकथा आदि में रस रखना भी प्रमाद है । जो आगमविहित कुशल क्रियानुष्ठानादि है उनमें अनादर करना है। मन-वचन-कायादि योगों का दुष्प्रणिधान आर्तध्यानादि की प्रवृत्ति प्रमाद भाव है। प्रमाद भी पांच प्रकार का बताते हुए शास्त्रकार महर्षि कहते हैं -
मज्ज-विषय-कषाया-निद्रा-विकहा य पञ्चमा भणिया।
ए ए पञ्च पमाया, जीवा पाडंति संसारे ॥ कर्म की गति नयारी