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किसी द्रव्य के आधीन रहता है। कपड़ा द्रव्य है अत: कपडे के आधीन सफेदी रहती है। सफेदी कपड़े में, चूने में या अन्य किसी भी द्रव्य के आश्रय पर रहेगी। जब भी सफेदी को रहना होगा तब स्वतंत्र रूप से नहीं रह सकती। किसी न किसी द्रव्य में ही रहना पड़ेगा। वैसे ही ज्ञान यह एक गुण है यह ज्ञान गुण स्वयं अकेला स्वतंत्र नहीं रह सकता। जब भी ज्ञान गुण रहेगा तब आत्म द्रव्य में ही रहेगा । अन्य द्रव्य में क्यों नहीं रहेगा?
प्रश्न तो ठीक है कि ज्ञान आत्मा में ही क्यों रहे? क्या आत्मातिरिक्त अन्य किसी द्रव्य में नहीं रह सकता? आपने ताo “द्रव्याश्रयि निर्गुणाः गुणा:” यह लक्षण बनाया है। अतः इस लक्षण के आधार पर ज्ञान जो स्वयं निर्गुण है वह ईटचूने-पत्थर-मकान आदि किसी भी द्रव्य में रह सकता है। ऐसा निश्चित कहां कहा है कि इसी द्रव्य में ही रहना चाहिए? जैसे सफेदी कपड़े में, चूने में, रूई में, नमक में इत्यादि कई पदार्थों में रहती है, वैसे ही ज्ञान भी आत्मा में ही क्यों रहे? अन्य कई पदार्थों में रह सकता है। आपका प्रश्न तो बहुत अच्छा है परंतु सोचिए !...जो जिसका गुण होगा वह उसी में रहेगा । जगत् में मूलभूत दो ही तो द्रव्य है। जड़ और चेतन। जीव और अजीव द्रव्य है। ईंट-चूना-पत्थर-मकानादि ये सब अजीव-जड़ है। अजीव के गुण अजीव में ही रहेंगे और जीव के गुण जीव में ही रहेंगे। ज्ञानदर्शनादि जीव के गण है और वर्ण-गंध-रस-स्पर्श ये जड़ पदगल पदार्थ के गुण है।
ये ज्ञान-दर्शनादि आत्मा को छोड़कर आत्मातिरिक्त अन्य किसी जड़ या अजीव पदार्थ में कभी भी नहीं रहेंगे, आत्मा में ही रहेंगे। आत्मा एक द्रव्य है और सभी आत्माएं एक जैसी ही है। एक से दूसरे के आत्म स्वरूप में कोई भेद नहीं है। अंतर स्वरूप में नहीं हैं। अतः आत्मा का स्वरूप तो सभी अनंत आत्माओं का एक समान है। सादृश्यता एक जैसी है। जैसी एक आत्मा है वैसी ही सभी है । इसीलिए "सोऽहं" हम कह सकते हैं । हे भगवन् जो तूं है जैसा तूं है वैसा ही मैं भी हूं। वही आत्म स्वरूप में भेद नहीं है सभी समान है इसलिए सादृश्यता सूचक ये शब्द कहे जा सकते हैं। सिर्फ अंतर इतना ही है कि वे सर्वथा सर्व कर्म रहित है और हम कर्म से भरे हुए हैं। प्रभु पापादि दोष रहित है और हम सब पापों से पूरे हैं। प्रभु सिद्ध-बुद्ध-मुक्त है
और हम कर्म संसक्त, अज्ञानी-संसारी है। प्रभु परम शुद्ध परमात्मा है और हम परम अशुद्ध पामरात्मा है। शुद्धि-अशुद्धि में अंतर जरूर है परंतु आत्मस्वरूप में अंतर नहीं है। इसलिए सभी में ज्ञानादि गुण एक जैसा ही होंगे। हां, ज्ञानादि के प्रमाण-मात्रा मे अंतर जरूर रहेगा। जिसने जितने प्रमाण में कर्म क्षय करके जितना ज्ञान प्राप्त किया होगा उसमें उतने कम-ज्यादा प्रमाण में ज्ञानादि गुण रहेंगे। परंतु ज्ञानादि जो आत्म गुण है वे सभी में रहेंगे। आत्मा के स्वरूप में जड़ की तरह वैविध्य एक नहीं अनंत
कर्म की गति नयारी