________________
उनकी भी स्तुति - पूजा - भक्ति आदि करनी उपयोगी सिद्ध होगी, क्योंकि परमात्मा का परम विशुद्ध स्वरूप यह आत्मा की ही अवस्था है । हम पामर आत्मा है वे परमात्मा है अतः पामर को परम का आलंबन लेना आवश्यक है। तभी पामर परम बन सकेगा । अन्यथा असंभव है । हमें पामर से परम बनने की साधना करनी है अतः 1 परम का आलंबन लेना नितांत आवश्यक है। परम भी कौन है ? जो आज परम है वे कल एक दिन पामर थे। हमारे जैसे पामर थे । वे पामर से परम कैसे बने ? उन्होंने भी परम का आलंबन निश्चित लिया था, तभी वे पामर से परम बन सके। उदाहरणार्थ नयसार का जीव महावीर कैसे बना? मरुभूति का जीव पार्श्वनाथ भगवान कैसे बना? धनसार्थवाह का जीव ऋषभदेव कैसे बना? नयसार, मरुभूति और धनसार्थवाह ये सभी एक दिन तो हमारे जैसे ही थे। उनकी भवपरंपरा देखी जाय तो यह स्पष्ट दिखाई देता है कि उन्होंने अपनी भव परम्परा में परम आदर्श रूप महापुरुषों का आलंबन लिया है, उनकी स्तुति - भक्ति पूजा आदि की है तब आगे चलकर एक दिन वे भी परम पद पर बिराजमान हो सके। भगवान बनकर मोक्ष में चले गए। वे तो भगवान बन गए, मोक्ष में चले गए। लेकिन हम आज ऐसे ही संसारचक्र में क्यों भटक रहे हैं ? हमारा मोक्ष क्यों नहीं हो गया ? हम भगवान क्यों नहीं बन गए? इसका उत्तर साफ हैं कि हमने तथाप्रकार की कर्म निर्जरा-कर्म क्षय नहीं किया इसीलिए कर्म के चक्र में फंसे रहे। कर्म क्षय क्यों नहीं किया? क्योंकि कर्म क्षयकारक वैसा धर्माचरण नहीं किया ? वैसा धर्म जब था और है तब धर्माचरण क्यों नहीं किया ? कारण कि हम मिथ्यात्वादि से ग्रस्त थे । महा मोह से घीरे हुए थे । इसलिए तथाप्रकार की श्रद्धा रूचि - भावना जगी ही नहीं, अतः कर्मपाश बद्ध पामर अवस्था में आज भी पड़े हैं। तथाप्रकार का सही ज्ञान मिलेगा, सही रूचि जगेगी, सच्ची श्रद्धा होगी और सम्यग् आचरण जब होगा तभी जाकर कर्म की जबरदस्त निर्जरा होगी तब जाकर अंत में मोक्ष होगा। परम विशुद्ध पवित्र परमात्म स्वरूप प्राप्त करेंगे। जब तक अज्ञान नहीं टलेगा तब तक सम्यग् ज्ञान भी नहीं होगा, अतः अज्ञान की निवृत्ति अनिवार्य है ।
अन्नाणं खु महा भयं :
अज्ञान ही महा भयंकर है। अज्ञान ही सभी पापों की जड़ है। यही आत्मा का सबसे बड़ा शत्रु है। जगत में जो पदार्थ का सही स्वरूप है वह हम नहीं जानते हैं अतः पदार्थ के प्रति खिंचाव रहता है। आत्मा भी एक द्रव्य है - पदार्थ है। उसका भी सही स्वरूप हम नहीं जानते हैं, नहीं पहचानते हैं, अतः आत्मशुद्धि की या सिद्धि की रूचि-जिज्ञासा नहीं बढ़ती । जीव अनात्म भावों की तरफ ज्यादा खिंचा जा रहा है। परिणाम स्वरूप जो मेरा नहीं है, उसमें भी मैं मेरेपने की बुद्धि रख बैठा हूं, और जो मेरा है, मेरा जो मेरे पास है उसको मैं पहचानता तक भी नहीं हूं। कवि ने ठीक ही कहा है कि -
कर्म की गति नयारी
.
(१६०