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है। अतः संसारी कर्म युक्त जीव कर्मानुसार वृत्ति-प्रवृत्ति वाले हैं। हां, कर्म प्रकृति को दबाकर उसके उदय में भी उस कर्म प्रकृति के स्वभाव को गौण कर आत्म धर्म की साधना यदि जीव करने लगे तो जरूर होगी। तो ही कर्मावरण हटेंगे। आठ उदाहरण जो ८ कर्मों को समझने के लिए दिये गये हैं उसमें आंख पर पट्टी, द्वारपाल, मदिरापान आदि का स्वभाव है वैसा ही स्वभाव बंधी हुई कर्म प्रकृतियों का है। अतः स्वभाव के आधार पर प्रकृति बंध कहा गया है। ऐसी कर्म की प्रकृतियां है। ऐसी कर्म की प्रकृतियां कितनी है? कौनसी है? उनके विषय में कहा हैं कि -
- इह नाण-दसणावरण-वेय-मोहाउ-नाम-गोआणि । विग्धं च पण नव दु अट्ठावीस चउ-तिसय-दु-पणविहं ।।
नवतत्त्व प्रकरण की ३९ वीं गाथा में कर्म की मूल आठ प्रकृतियों के नाम तथा उनके अवांतर भेदों की संख्या भी बताई है --
आत्म गुणों के नाम । ८ मूल प्रकृति के नाम , उत्तरप्रकृति की संख्या - (१) अनंत ज्ञान गुण ज्ञानावरणीय कर्म (२) अनंत दर्शन गुण दर्शनावरणीय कर्म (३) अनंत सुख गुण . वेदनीय कर्म (४) अनंत चारित्र गुण मोहनीय कर्म (५) अक्षय स्थिति गुण (६) अनामी-अरूपी गुण · नाम कर्म . (७) अगुरुलघु गुण
गोत्र कर्म (८) अनंतवीर्य गुण - अंतराय कर्म ...
----- -----------.. ८ गुण
मूल प्रकृति ८ उत्तर प्रकृति - १५८ (१) ज्ञानावरणीय कर्म की,५ प्रकृतियों का स्वभाव आत्मा के ५ प्रकार के ज्ञान को ढकने का है (२) दर्शनावरणीय कर्म की ९ उत्तर प्रकृतियों का स्वभाव आत्मा की देखने की शक्ति रूप दर्शन गुण को ढकने का है (३) वेदनीय कर्म की २ प्रकृतियों का स्वभाव आत्मा के अनंत-अव्याबाध सुख गुण को ढकने का है (४) मोहनीय कर्म की २८ प्रकृतियों का स्वभाव आत्मा के अंनंत चारित्र गुण को ढककर क्रोधादि कराने का है (५) आयुष्य कर्म की ४ उत्तर प्रकृतियों का स्वभाव आत्मा के अक्षय स्थिति गुण को ढककर चार गति में जन्म-मरण कराने का है (६) नाम कर्म की १०३ उत्तर प्रकृतियों का स्वभाव आत्मा के अनामी-अरूपी निरंजन-निराकार गुण को ढककर नाम-रूप-आकृतिवाला बनाने का है (७) गोत्र कर्म की २ उत्तर प्रकृतियों का स्वभाव आत्मा के अगुरूलघु गुण को ढककर उच्च-नीच गोत्र में ले (१४७)
कर्म की गति नयारी
आयुष्य कर्म