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तरह आत्मा में आए हुए कार्मण वर्गणा के जड़ पुदगल परमाणुओं में जीव परिणामअध्यवसाय रूपी रस डालता है। तथाप्रकार के रस के आधार पर उन कार्मण परमाणुओं का पिंड-वह कर्म कहलाएगा। मात्र बाहरी आकाश प्रदेश में रही हुई कार्मण वर्गणा को कर्म नहीं कहा जाता। जैसे मात्र गेहूं के चूर्ण (आटे) पर वेलन चलाने से रोटी नहीं बनती है, उसमें पानी डालकर आटे का पिंड बांधा जाय फिर रोटी बनेगी। उसी तरह कार्मण वर्गणा कर्म नहीं है । वे ही आत्मा के साथ मिलकर एक रस बन जाती है। फिर उनका पिंड जो होता है वह कर्म की संज्ञा प्राप्त करता है। यह कार्मण पिंड कर्म कहलाता है। प्रायः परिणाम के अनुसार क्रिया होती है और प्रायः क्रिया के अनुरूप परिणाम भी होते हैं। परंतु साम्यता और वैषम्य दोनों इनके बीच दिखाई देते हैं। परिणाम अच्छे भी हो और क्रिया का स्वरूप खराब भी हो सकता है। या परिणाम खराब भी हो और क्रिया अच्छा भी हो सकता है। उदाहरणार्थ मंदिर में दर्शन-पूजा करने आने की क्रिया अच्छी है परंतु भगवान का मुकुट चोरने के परिणाम खराब से खराब होने के कारण दर्शन-पूजा की क्रिया का पुण्य नहीं लगेगा परंतु मुकुट चोरने के परिणामानुसार भयंकर अशुभ कर्म बंध होगा। इस तरह परिणाम और क्रिया की चर्तुभंगी बनेगी -
(१) परिणाम अच्छे - क्रिया खराब । (२) परिणाम खराब - क्रिया अच्छी । (३) परिणाम अच्छे और क्रिया भी अच्छी । (४) परिणाम खराब और क्रिया भी खराब ।
इसमें परिणाम खराब वाले दोनों भंग अशुभ कर्म बंध कारक है। जबकि परिणाम अच्छे के दो भंग में परिणाम के साथ साथ क्रिया भी अच्छी है तो दोहरा लाभ है। इस तरह कर्म बंधं का मुख्य आधार परिणाम की शुभाशुभता पर है। कर्म बंध के हेतु :
परिणाम और क्रिया का जो विचार कर्म बंध के हेतु
कर्म बंध में किया है। उन कर्मों का बंध आत्मा के साथ जब होता है तब बंध के हेतु भिन्न भिन्न प्रकार के होते हैं। तत्त्वार्थाधिगम सूत्र में बंध हेतु इस
प्रकार बताए हैं - मिथ्यादर्शना-ऽविरतिआत्मा
प्रमाद-कषाय-योगा बन्ध हेतवः (८-१) मिथ्यात्व अविरति-प्रमाद-कषाय और योग ये पांच बंध के हेतु है । हेतु जो कारण रूप होते हैं।
आत्मा के साथ कर्म बंध का क्या कारण है? (१३७)
कर्म की गति नयारी
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