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सम्बन्ध रहता है। अतः गुण किसी गुणी में ही रहेंगे। सुख-दुःख वाला गुणी सुखीदुःखी कहलाएगा। अब आप बताईये कि संसार में सुखी-दुःखी लोग है कि नहीं ? इस बात में कौन ना कह सकेगा? मना करना सम्भव ही नहीं है। सुखी-दुःखी प्रत्यक्ष दिखाई देते हैं। सैंकड़ों नहीं लाखों करोड़ों हैं। हम स्वयं भी सुखी-दुःखी है, सुखी सुख के कारण है, दुःखी दुःख के कारण है।
अब बात यह है कि सुखी-दुःखी क्या है ? कार्य है या कारण ? उदाहरणार्थ धुंए और अग्नि में धुंआं कार्य है उसका उत्पादक कारण अग्नि है । जैसे घड़ा कार्य है और मिट्टी कारण है । कारण नहीं होता तो कार्य बनता ही नहीं । अग्नि नहीं होती तो धुंआं निकलता ही नहीं । मिट्टी नहीं होती तो घड़ा बनता ही नहीं । कार्य बिना कारण के नहीं होता, कार्य का कारण के साथ निश्चित सम्बन्ध है । उसी तरह यहां सोचिए कि सुखी-दुःखी क्या है ? ये कार्य है या कारण है ? कारण तो हो नहीं सकतै । कारण मानें तो सुखी-दुःखी से फिर आगे कार्य क्या माने ? अतः कार्य ही मान सकते हैं । ये कार्य है तो इनका कारण क्या ? सुखी-दुःखी का कारण ईश्वर को मान नहीं सकते चूंकि सैंकड़ो दोष आते हैं और ईश्वर का स्वरूप भी विकृत हो जाता हैं फिर भी कार्य स्वरूप सुखी-दुःखी ईश्वर के कारण सिद्ध नहीं हो सकते हैं । अब कार्य है यह निश्चित है तो कारण भी निश्चित मानना ही पड़ेंगा चूंकि कार्य कारण के बिना सम्भव नहीं हो सकता । अतः कार्य के लिए कारण अवश्य ही मानना पड़ता हैं ।
सुख-दुःख कार्य के कारण रूप में कर्म को मान सकते हैं, कर्म ही एकमात्र कारण ऐसा सिद्ध होगा जो सर्वथा सर्व दोष रहित होगा । अग्नि से जैसे धुंआं निकलता है । यहां अग्नि कारण और धुंआं कार्य है । मिट्टी घड़े के लिए कारण है । ठीक उसी तरह सुख के लिए जीव के शुभ कर्म कारण है । शुभ कर्म को ही शास्त्रीय परिभाषा में पुण्य कहते हैं । अतः पुण्यानुसार ही सुख प्राप्त होता है ।
कार्य + - सुख - दुःख
कारण → शुभ (पुण्य) कर्म→अशुभ (पाप) कर्म
इसलिए शुभ पुण्य-कर्म सुखरूपी कार्य का कारण सिद्ध होता है । उसी तरह दुःख भी कार्य है । इसका कारण अशुभ पाप कर्म है । अशुभ पाप कर्म जीव ही उपार्जित करता है । उसी कारण दुःख भोगता है । इसलिए दुःख का एकमात्र कारण जीव द्वारा उपार्जित अशुभ कर्म ही है । कार्य का कारण के साथ अविनाभाव सम्बन्ध रहता है । उसी तरह सुख-दुःख रूप कार्य का शुभाशुभ कर्म ही कारण हो सकता है । सुख-दुःख का अविनाभाव सम्बन्ध शुभाशुभ कर्म के साथ निश्चित रूप से है । शुभा-शुभ कर्म नहीं रहेंगे तो सुख दुःख रूपी कार्य भी नहीं रहेंगे । अतः यही न्याय (१०३)
-कर्म की गति नयारी