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इसी प्रकार पांचों इन्द्रियां अपने अपने विषय को ग्रहण करती है, तथाप्रकार के विषयों में आत्मा राग-द्वेष के आधीन होती है। कुछ विषय प्रिय लगते है। सुगंध प्रिय है, दुर्गंध अप्रिय है। मीठा - मधुर रस प्रिय है। कटु-कडवा रस अप्रिय लगता है। इस तरह २३ विषयों में कुछ में जीव ने प्रिय की बुद्धि बनाई है और कुछ में अप्रिय की बुद्धि बनाई है। ये प्रिय-अप्रिय भाव राग-द्वेष के कारण होते हैं । अतः राग-द्वेष के आधीन होकर आत्मा कई कर्मों का आश्रव करती है। इस प्रकार के राग-द्वेष में इन्द्रियां निमित्त बनी है अतः इन्द्रियाश्रव कहलाएगा। यह ५ प्रकार का है ।
(२) कषायाश्रव - क्रोध- मान-माया और लोभ ये ४ कषाय है। कष् + आय = कषाय। कष् अर्थात् संसार और आय अर्थात् = लाभ। अर्थात् कषाय का अर्थ संसार का लाभ होता है। आत्मा इन क्रोधादि कषायों के आधीन जब भी होती है तब आत्मा का संसार बढ़ता है। इसलिए ये कषाय भी आत्मा में कार्मण वर्गणा के पुद्गल परमाणुओं को खींचकर लाने का आश्रव का कार्य करते हैं। अतः चार प्रकार का कषायाश्रव कहलाता है ।
अव्रत । व्रत
(३) अव्रताश्रव व्रत ५ है । अहिंसा - सत्य - अस्तेय ब्रह्मचर्यअपरिग्रह ये ५ व्रत धर्मस्वरूप है। आत्मा इनमें रहे तो कर्माश्रव नहीं होता है, उपर से कर्मक्षय होता है। परंतु सभी जीव इन पांच व्रतों में नहीं रहते है। अधिकांश जीव इनसे विपरीत अव्रतों में रहते हैं। अ + व्रत = अव्रत। अर्थात् व्रत का अभाव से विपरीत चलना यह अव्रती का कार्य है। हिंसा- झूठ - चोरी - मैथून सेवन तथा परिग्रहवृत्ति ये पांच अव्रत है। व्रत से सर्वथा विपरीत अव्रत है। जीव जब हिंसा-झूठचोरी आदि अव्रतों का आचरण करता है, तब आत्मा में कार्मण वर्गणा का आश्रव होता है। काफी ज्यादा प्रमाण में कर्म लगते हैं। अतः ५ प्रकार के हिंसादि अव्रताश्रव है । (४) योगाश्रव - मन, वचन और काया (शरीर ) ये ३ योग कहलाते है। संसारी जीवों को ये तीन साधन मिलते हैं। प्रत्येक जीव को शरीर तो अवश्य मिलता ही है। बिना शरीर के कोई जीव संसार में रहता ही नहीं है । अशरीरी सिर्फ सिद्ध-मुक्त ही कहलाते हैं। द्वीन्द्रिय से उपर के जीवों को दूसरा वचन योग मिलता है। तथा सिर्फ संज्ञि पंचेन्द्रिय जीवों को ही मन मिलता है। इस तरह ये ३ साधन जीवों को मिलते हैं। इन्हीं के जरिए जीव कर्मबंध या कर्मक्षय की प्रवृत्ति करता है । तत्त्वार्थधिगमसूत्र में कहा है 'काय - वाङ - मनः कर्मयोगः "Y & काया वचन और मन के द्वारा जीव कर्म से जुड़ता है। कर्मयोग इनके माध्यम से होता है। अशुभ पाप कर्म भी ये ३ ही बंधाते है और शुभ पुण्य कर्म भी ये ३ ही बंधाते हैं । अतः योगाश्रव में इन ३ को आश्रव का कारण गिना है।
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(५) क्रियाश्रव
(१२३
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संसारी जीव विविध प्रकार की क्रियाएं करता है। - कर्म की गति नयारी.