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यह इससे बड़ा है। जाति-कुल में ऊंच-नीच का भेदभाव गोत्र कर्म कराता है।
(७) आत्मा अनंत सुखस्वरूप है। अनंत रूप से सुख आत्मा में भरा पड़ा है। आनंद ही आनंद है। आनंदघन स्वरूप, सच्चिदानंद स्वरूप, चिदानंद स्वरूप आत्मा का सुख अव्याबाध है, अर्थात् किसी से व्याबाध पाने वाला नहीं है। परंतु संसारी अवस्था में ४ गति में भिन्न-भिन्न गति-जाति में सुख-दुःख का शाता-अशाता का अनुभव कराने वाला वेदनीय कर्म है। जो वेदन-संवेदना पीड़ा, सुख-दुःखादि का अनुभव कराता है वह वेदनीय कर्म है।
(८) आत्मा सर्वतंत्र स्वतंत्र है। आकाश के उड़ते पक्षी की तरह स्वैरविहारिणि आत्मा को एक देहपिंजर में नियत काल तक बन्दिस्त बनाकर रखने का काम आयुष्य कर्म का है। अक्षय = अ + क्षय = अक्षय। कभी भी क्षय अर्थात् नाश न होने वाली आत्मा की अक्षय स्थिति है। परंतु इस गुण पर आवरण रूप आकर आयुष्य कर्म आत्मा को जन्म-मरण के काल चक्र में फसा देता है। इसी आयुष्य कर्म के कारण जीव को देव-मनुष्यादि ४ गति में मिले शरीर में नियत काल अवधि तक बन्दिस्त बनकर रहना पड़ता है।
जिस तरह उदित हुए सूर्य पर चारों तरफ से घनघोर घटाटोप काले श्याम - बादल छा जाते हैं, जिसके परिणाम स्वरूप सूर्य की किरणें-पृथ्वीतल पर नहीं पहुंच पाती है। अंधेरा छा जाता है। रात्री का भ्रम भी कभी-कभी पैदा कर देता है। सूर्य के होते हुए बादलों के कारण यह स्थिति निर्माण हो जाती है। ठीक इसी तरह आत्मा भी एक ज्ञानवान अनंत शक्ति आदि गुणवान तेजस्वी सूर्य समान प्रकाश पुञ्जवद् द्रव्य है। सूर्य जैसे प्रकाश फैलाता है वैसे आत्मा ज्ञानादि गुणों का आविर्भाव करती है। परंतु आत्मा पर कई परदे आ जाय तो क्या स्थिति हो? सूर्य पर बादलों की तरह आत्मा पर कर्मावरण रूपी बादल छा जाते हैं अब इन आवरक बादलों से कितना प्रकाश प्रकट होगा? उदाहरणार्थ सूर्य का प्रकाश काले घटाटोप बादलों में से जितना आता है उतना ही आत्मा में से ज्ञानादि अल्पमात्रा से बाहर प्रकट होगा। आठ कर्म के आठ आवरण है। इनमें से निकलता हुआ जो अल्पतम मात्रा में ज्ञानादि गुणों का
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कर्म की गति नयारी