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नहीं जैनों को परमास्तिक कहना पडेगा । परमात्म भक्ति के उदाहरण के रूप में आज भी हजारों लाखों मंदिर जो लाखों वर्षों से विद्यमान हैं। इतने बडे तीर्थ और जिन मंदिरादि ही जैनों की परमास्तिकता-परमभक्ति की गौरव गाथा सदियों से गा रहे हैं। सदियों से पूजा हो रही है।
इस तरह जैन दर्शन ईश्वर कर्तत्ववादी दर्शन नहीं है। अवतारवादी भी नहीं है। एकेश्वरीवादी भी नहीं है, नित्य ईश्वरवादी भी नहीं है, तो ऐसी मान्यतावाले हिन्दु धर्म की शाखा भी कैसे हो सकता है ? नीम के वृक्ष की एक शाखा मीठी कैसे हो सकती है? आम्र वृक्ष की शाखा को नीम के वृक्ष की शाखा कैसे सकते हैं? जैन दर्शन की मौलिक मान्यता, एवं सिद्धान्त की धारा हिन्दु विचार धारा से सर्वथा विपरीत ही है। दोनों में पूर्व-पश्चिम का या आसमान जमीन का अन्तर है तो फिर शाखा मानने का सवाल ही कहां उत्पन्न होता है ? हिन्दु धर्म में से जैन धर्म निकला है, यह कहना भी नितांत तर्क युक्ति रहित है। अतः जैन दर्शन हिन्दु धर्म की शाखा नहीं है। न ही इसमें से निकला है। यह एक स्वतंत्र मौलिंक दर्शन है। स्वतंत्र धर्म है।
अतः परमेश्वर-परमात्मा का शुद्ध स्वरूप समझने के लिए यह तर्क युक्ति पूर्वक सुदीर्घ विस्तृत चर्चा की है। जिससे संसार एवं स्वयं के सुख-दुःख के हर्ता, जगत कर्ता ईश्वर है या नहीं यह पता चल सके। अब एक पक्ष को विविध पासों में देख लिया कि ईश्वर इस संसार की यह विचित्रता, विषमता एवं विविधता तथा जीवों के सुख-दुःख का तथा कर्म फल का कारण नहीं है। यह स्पष्ट एवं निर्णय होने के बाद अन्य कारण कालादि हो सकते हैं या नहीं इसके बारे में फिर आगे सोचेंगे एक पक्ष में निर्णय हुआ अन्य निर्णय आगे देखेंगे।
॥ इति शुभं भवतु ।।
कर
कर्म की गति नयारी