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जो करता है वही होता है। सबका आधार एक मात्र कर्ता के ऊपर निर्भर करता है । अतः एक मात्र पुरुष कृति ही समर्थ कारण है। पूर्व कर्म में है तो क्या हुआ? हम तो ऐसा नहीं ऐसा करेंगे। अतः हमारा पुरुषार्थ कारण बनेगा। क्या जरूर है कि हम दैववाद (भाग्य) या कर्म या ईश्वर को कारण मानें? कोई आवश्यकता नहीं है। ईश्वरादि तथा पूर्वकृतकर्मादि सभी अदृष्ट-अदृश्य अप्रत्यक्ष कारण है,अतः वे सभी संदेहात्मक-संशयात्मक है । एक मात्र पुरुषकृतित्व कारण ही दृश्य एवं प्रत्यक्ष कारण है । सुख-दुःख आदि भी पुरुषेच्छाधीन है। पुरूष अपने कारण से ही सुखी या दुःखी होता है । हम कर्माधीन ही मरेंगे ऐसी भी बात नहीं है। नियति ही हमें मारेगी ऐसी भी बात नहीं है। हम स्वेच्छा से आत्महत्या करके अभी मर सकते हैं। सब कुछ अभी ही अपनी कृति से कर सकत हैं। खेती करता पुरुष प्रयत्न पर निर्भर है। इस तरह पुरुषार्थवादी एक मात्र पुरुष कारणता को ही स्वीकार करते हैं। पुरुष चाहे वही कर सकता है । उसी की धारणानुसार सब कुछ होता है। अन्य कोई कारण नहीं है।
उपरोक्त पांच कारण मुख्य रूप से माने गए हैं । काल-स्वभाव-नियतिपूर्वकृत कर्म एवं पुरुषार्थवाद ये पांच कारण प्रमुख है । इसके अलावा भी श्वेताश्वेतर उपनिषद में यदृच्छावाद भी माना गया है । यह भी एक वाद था । यह भी एक पक्ष था। महाभारत में भी यदृच्छावाद का उल्लेख शांति पर्व में है। यदृच्छा' शब्द का अर्थ 'अकस्मात्' किया जाता है। अर्थात् किसी भी कारण के बिना । इनका कहना है कि किसी भी कारण के बिना निष्कारण ही कांटे में तीक्ष्णता होती है। उसी तरह अनिमित्त-निमित्त के बिना भावों की उत्पत्ति होती है। अनिमित्तवाद, अकस्मातवाद और यदृच्छावाद ये समानार्थक है । यदृच्छावादी मुख्य रूप से कारण की सत्ता को ही अस्वीकार करते हैं।
- इसी तरह बुद्ध चरित में संजय बेलट्ठी के अज्ञानवाद को भी एक वाद के रूप में कहा गया है। सभी पदार्थों का ज्ञान संभव ही नहीं है । कहकर अज्ञानवाद की तरफ झुकने वाले अज्ञान-वादी का भी एक पक्ष था। सूत्रकृतांग सूत्र में भी अज्ञानवादी के निरसन की चर्चा की गई है। ये दोनों सामान्य कारण है। मुख्य कालादि पांच कारण है। इनमें क्या समझना ? किस पक्ष को सत्य समझें? काल सही है? या नियति सही है ? या स्वभाव? या अन्य? प्रत्येक का एक-एक का स्वरूप देखने पर ऐसा लगता है कि एक ही कारण सही है। कालवादी की बातें सुनते हैं तब वही सही लगती है । स्वभाववादी की बात सुनते हैं तब ऐसा लगता है कि यही पक्ष सही है। हम द्विधा में फस जाते हैं ! कौनसा पक्ष स्वीकारें? कौनसा सही है ? इसके उत्तर में सन्मतितर्क महाग्रंथ में कहा है कि -
कालो-सहाव-णियई-पुव्वकम्म पुरिसकारणेगंता। ()
–कर्म की गति नयारी