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कैसे निकलना यह एक समस्या है। जीव को माता की कुक्षी में शुक्र - शोणित ग्रहण कर पिंड बनाकर देह रूप में परिणत करने में कर्म ही कारण है। ईश्वर को न तो कारण मान सकते है और न ही सामग्री । अतः यह बात माननी ही पड़ेगी कि जीव कर्म रूप उपकरण के द्वारा ही देह का निर्माण करता है। अपना संसार जीव स्वयं ही बनाता है और चलाता है। इस तरह संसार में अनंत संसारी जीव कर्माधीन है। सभी कर्म संयोगवश अपना-अपना संसार निर्माण करते हैं और चलाते हैं। बस ईश्वर को कर्तृत्व, फलदाता आदि के रूप में बीच में स्वीकारने की आवश्यकता नहीं है बलात् जब दस्ती करने पर ईश्वरस्वरूप विकृत होता है ।
ईश्वरकर्तृत्व की निष्प्रयोजनता :
निष्कर्म = कर्म रहित जीव शरीरादि नहीं बनाता है। चूंकि वह निश्चेष्ट है जो आकाशादि के समान निश्चेष्ट हो वह आरम्भ कार्य में असमर्थ होता है । कर्म रहित जीव को सिद्धात्मा - मुक्तात्मा कहलाता है । वह निश्चेष्ठ निष्क्रिय है तथा वहां कर्म उपकरण भी नहीं है अतः देह निर्माण या संसार निर्माण कुछ भी संभव नहीं है । जहाँ कर्म उपकरण है वहीं संभव है ।
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अब यदि आप ईश्वर को सशरीरी मानकर कुम्हार की तरह सृष्टि का कर्ता मानते हो तो हमारा प्रश्न यह है कि ईश्वर ने अपने शरीर की रचना स्वयं बनाई या दूसरे के द्वारा ? दूसरे के द्वारा मानने पर अनवस्था दोष आएगा । यदि यह कहें कि ईश्वर ने स्व शरीर की रचना स्वयं की । तो यह बताइये कि ईश्वर ने स्व शरीर की रचना सकर्म होकर की या अकर्म होकर ? यदि कर्म रहित हो कर की कहेंगे तो आकाश भी कर सकता है । वह निष्कर्म है अथवा कर्म रहित ईश्वर सामग्री के अभाव में देह रचना कैसे कर सकता है? तो फिर सिद्धात्मा भी कर सकता है। यह मानोगे तो सिद्ध पुनः संसार में आ जाएगा । अतः उनका सिद्ध होना व्यर्थ सिद्ध होगा। इस तरह तो सिद्धत्व ही निरर्थक निष्प्रयोजन सिद्ध हो जाएगा तो कोई सिद्ध बनेगा ही नहीं ।
सिद्ध बनने के लिए पुरुषार्थ भी नही करेगा । पुरुषार्थ धर्म प्रधान है, वह भी नहीं करेगा। इस तरह सब कुछ निरर्थक - निष्प्रयोजन सिद्ध हो जाएगा । अच्छा, अकर्म ईश्वर की सामग्री के अभाव में स्वं शरीर रचना ही असंभव है तो फिर सृष्टि रचना कैसे संभव हो सकती है? सकर्म मानते हैं तो सकर्मी तो मनुष्य भी है। पशुपक्षी भी है। सकर्मी सशरीरी सभी हैं तो ईश्वर की मनुष्यादि से भिन्नता संभव नहीं है । अच्छा, यदि ईश्वर बिना किसी प्रयोजन के जीवों के शरीरादि या सृष्टि की रचना करता है तो निष्प्रयोजन प्रवृत्ति उन्मत्त प्रवृत्ति कहलाती है। अतः ईश्वर को उन्मत्त मानने की आपत्ति आएगी। अच्छा यदि कोई प्रयोजन है तो वह ईश्वर क्यों कहलाएगा ? ईश्वर ही अनीश्वर सिद्ध होगा । यदि अनादि शुद्ध ईश्वर ही सृष्टि की रचना - कर्म की गति नयारी
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