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तुम थोड़े लोहे के टुकडे इकट्ठे कर लाओ। मैं पारसमणी निकालता हुं । स्पर्श कर के सोना बना लेंगे। ५०-६० साल तक जान से भी ज्यादा जिसे संभालकर रखी थी वह पारसमणी उस वृद्ध ने अपने सीने पर बंधी कपड़े की पट्टी खोलकर निकाली । वृद्ध बेचारा बड़ा प्रसन्न था। हां, आखिर गरीब के लिए तो १-१ पैसा आशा की किरण है। आश्चर्य इस बात का था कि पारसमणी समझकर वर्षों से अपने पास संभाल कर रखी। परंतु कभी भी सोना बनाकर भी देखा नहीं था। चूंकि आज से ही यदि सोना बनाने लग जाऊंगा तो बेटे सोना देखकर प्रमादी बन जाएंगे। कोई भी कमाएगा नहीं। अतः जरुरत पड़ेगी तब बना लेंगे। इस हेतु से संभालकर रखी। आज सोना बनाने की परिस्थिति आ गई है, ऐसा समझकर सोना बनाने घर के अंदर के एक कमरे में बैठा। पत्नि लोहे के टूकड़े ले आई। घर बंद करके अंदर के कमरे में वृद्ध ने पारसमणी निकाली और लोहे के टुकड़े को स्पर्श किया । हाय! अफसोस, कुछ भी नहीं हुआ। सोना नहीं बना । वृद्ध हैरान हो गया। पारसमणि लोहे के टुकड़े पर रगड़ने लगा। खूब जोर से घिसने लगा । बेचारा पसीना-पसीना हो गया। 'नाच ना जाने आंगन टेढा' की बात पत्नि के सामने बनाने की सोची तो सही परन्तु पेट भरने के लिए जब कुछ भी नहीं है, खाने की समस्या है वहां बहाना किसके सामने बनाऊं ? बेचारा वृद्ध सिर पटक पटक कर रोने लगा - चिल्लाने लगा । अब शंका हई की मैंने जिसको पारसमणी समझा था, वह सचमुच पारसमणी है कि सामान्य पत्थर मात्र है? पारसमणी होती तो सोना क्यों नहीं बनता है। पारसमणी की सत्यता की पहचानं ही लोहे को सोना बनाने में है। अब क्या करे ? पत्नी ने व्यंग किया- तो आपने ५० - ६० वर्ष जान से भी ज्यादा संभालकर रखी तो क्या सीने पर पत्थर.बांध कर रखा था। लोगों के सामने छिपाने के लिए कहते थे कि नहीं... नहीं सीने में गांठ हई है। इस तरह आपने जतन किया है और ५०-६० वर्ष के बाद आज यही नतीजा ! क्या बात है? वृद्ध बेचारा बरफ की तरह ठंडा हो गया। काटो तो खून भी न निकले । किस पर रोऊं? पारसमणी के नाम पर? या पत्थर के नाम पर? या ५०-६० वर्ष संभाल के रखी उस पर? आखिर किस पर रोना है? किसी पर नहीं, अपनी अज्ञानता पर रोना है। पत्नी ने कहा आपने अपनी बुद्धि से पारसमणी समझकर रख लिया परंतु वास्तव में पारसमणी थी, तो रखने के घंहले ही परीक्षा करके देख लेते कि सचमुच पारसमणी है कि नहीं? रखने के पहले ही दिन छोटे से लोहे के टुकड़े को सोना बनाकर देख लेते । ५०-६० साल तक फिजुल में संभाल के रखी। और आज उसे पत्थर समझ कर फेंकने के दिन आए। अब सिर पर हाथ देकर रोने के सिवाय क्या विकल्प रहा। न फैंकने की हिम्मत, न रखने की समझ क्या करें ? अफसोस के सिवाय क्या कहें ?
शायद भगवान के विषय में भी कुछ ऐसी ही बात है। हम भी जिन्दगी के (५५
कर्म की गति नयारी