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अतः इसे निरीश्वरवादी कह दिया है। परंतु परमात्मा अरिहंत को भगवान के स्वरूप में माना गया है। परमात्मा वीतराग स्वरूप है। सर्वज्ञ है। सर्वावरण रहित है । सर्वकर्म दोषमुक्त है । परमपद प्राप्त है। अतः शुद्ध-विशुद्ध आत्मा की परमात्मावस्था है। मुक्तात्मा-सिद्धात्मा का स्वरूप सर्वथा कर्ममुक्त है। जन्म-मरण एवं संसारचक्र से मुक्त है। अतः अवतारवाद भी जैन-दर्शन ने नहीं स्वीकारा है। प्रत्येक आत्मा आत्मद्रव्य स्वरूप से एक जैसी है। कर्मभेद से भेद है। उदाहरणार्थ आभूषण आकृति भेद से भिन्न-भिन्न दिखाई देते हुए भी मूलभूत सुवर्ण द्रव्य की दृष्टि से एक जैसे ही हैं। उसी तरह कर्मोपाधि जन्य देह भेद से भिन्न-भिन्न होते हए भी आत्म द्रव्य की दृष्टि से एकरूपता है । साम्यता है। अनन्तात्मा स्वीकारने वाले जैन-दर्शन ने एक ही सर्वोपरि सत्ता को ईश्वर के रूप में स्वीकार नहीं किया है। कोई भी आत्मा स्वकर्मों का क्षय करके उस विशुद्धि की कक्षा तक पहुँचकर परमात्मपद प्राप्त कर सकती है। सर्व कर्म मुक्त मुक्तात्मा पुनः संसार में नहीं लौटती । अतः अवतारवाद की मान्यता जैनदर्शन को मान्य नहीं है। स्वोपार्जित कर्मानुसार ही जीव कर्मफल-भोग प्राप्त करता है अतः कर्मफल दाता के रूप में भी ईश्वर को स्वीकारा नहीं गया है।
न्याय-मतानुसार ईश्वर जगत्कर्ता, पालनकर्ता एवं संहारकर्ता के रूप में है। वह जगत् का निमित्त कारण है । वह जीवों के कर्मों का निर्देश करता है। ईश्वर ही जीवों के अदृष्ट (कर्म) के अनुसार उन्हें कर्म करने के लिए प्रेरित करता है और ईश्वर फलदाता के रूप में है। वही फल देता है । ईश्वर विश्वकर्मा है । ईश्वर ही सृष्टि का कर्ता भी है, पालनकर्ता भी है और वही सृष्टि का प्रलय भी करता है। वही सर्वशक्तिमान है, ऐसी मान्यता है। वैशेषिकों ने विशेष भेद यह किया कि परमाणुवाद को सृष्टि सम्बंधी कारण माना है। लेकिन परमाणुवाद मानकर भी परमाणुओं के संचालक के रूप में ईश्वर को स्वीकारा है। ईश्वर इच्छा ही बलवान है। परमाणुओं के संयोगवियोग एवं गति आदि में ईश्वरेच्छा ही कारण है। अतः ईश्वर की इच्छा हो तब वह सृष्टि की रचना एवं प्रलयं आदि कर सकता है।
सांख्य दर्शन में सेश्वर सांख्य और निरीश्वर सांख्य दोनों पक्ष चलते हैं। सांख्य मत सृष्टिकर्ता के पक्ष में नहीं है। प्रकृति-पुरुष आदि २५ तत्त्वों की व्याख्या सांख्य दर्शन ने बैठाई है । पुरुष शद्ध चैतन्य स्वरूप राग-द्वेष से परे है। प्रकृति से भिन्न होकर वह अपना शुद्ध स्वरूप स्थिर रख सकता है। पुरुष ईश्वर रूप में नहीं है। वह प्रकृति के व्यापारों का दृष्टा है। वह जन्म-मरण के चक्कर से मुक्त है।
ईश्वर के अस्तित्व को मानने वाला सेश्वर सांख्य मत ही योग-दर्शन' के नाम से प्रसिद्ध है, ऐसी धारणा है। महर्षि पतंजलि इसके मुख्य उद्भावक हैं। इसमें ईश्वर का अधिकतर व्यवहारिक महत्त्व है। योग सूत्र में कहा है कि - ‘क्लेशकर्म
कर्म की गति नयारी