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ईश्वर की दया - करुणा कहां गयी ? तो क्या ईश्वर में से दया- करुणा चली भी जाती है ? क्रूरता और निर्दयता आती भी है क्या ? चूंकि अनुग्रह - निग्रह दोनों ही कार्य ईश्वर करता है अतः दया-करुणा और क्रूरता- निर्दयता दोनों ही ईश्वर में मानने पड़ेंगे । और दोनों अवस्था के आधीन जब ईश्वर एक को स्वर्गीय सुख देने का और दुसरे को रौरव नरक में दुःख देने का काम करेगा, तब क्या ईश्वर को कोई पुण्य पाप नहीं लगेगा ? वाह भाई वाह ! पुण्य-पाप जीव को लगता है और कराता है सब कुछ ईश्वर ! फिर फल देने की सत्ता भी ईश्वर के हाथों में ! फल देने का काम भी ईश्वर ही करता है । अरे.. रे.. इसकी अपेक्षा ईश्वर जीवों को कुछ भी कराए ही नहीं तो फिर अच्छे-बुरे का प्रश्न ही खड़ा नहीं होगा। तो फिर फल देने की नौबत ही नहीं आयेगी। अच्छा यही है कि हम यही पक्ष मानें। क्यों दयालु - करुणालु ईश्वर के हाथ निर्दयता और क्रूरता 'के रंग में खराब करते हो ? क्यों ईश्वर के हाथ नरक में जीव को कटवाकर खून से लथपथ करते हो ? अरे भाई ! ईश्वर को इतनी निम्न श्रेणी तक तो मत ले जाओ । ईश्वर को क्रूर नरकसंत्री, परमाधामी की तरह मत बना दो। बचाओ...बचाओ...! ईश्वर का स्वरूप बचाओ । बचाओ... बचाओ...! ईश्वर का स्वरूप विकृत होने से बचाओ । ईश्वर का स्वरूप गिरने से बचाओ। शायद हमें ऐसा ईश्वर बचाओं आन्दोलन करना पड़ेगा। ईश्वर को जेलर बनने से रोको । ईश्वर को कोड़े मारने वाला बनने से रोको । यदि फल देने का कार्य ईश्वर अपने हाथ में ले लेगा तो ईश्वर का एक स्वरूप या एकसा शुद्ध स्वरूप टिक ही नहीं पायेगा। फिर तो जज, न्यायाधीश, पोलीस, हंटर - कोड़े मारनेवालों को भी ईश्वर या ईश्वरावतार या ईश्वर स्वरूप ही मानना पड़ेगा । अरे.. रे.. ! ईश्वर को इतना निम्न स्तर पर ले जाने का पाप किस के सिर पर रहेगा ?
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ईश्वर में सर्वगतत्त्वादि भी सिद्ध नहीं होगा :
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सृष्टिकर्ता ईश्वर को सृष्टि निर्माणार्थ यदि सूक्ष्म शरीरी, या अशरीरी भी मानेंगे तो वह भी उपयुक्त नहीं होगा । या अदृश्य शरीरी भी मानेंगे तो भी उपयुक्त नहीं होगा। चूंकि अनंत कार्य निर्माणार्थ अनंत शरीर बनाये तो स्वशरीर बनाना ही सृष्टि हो जाएगी। फिर ईश्वर स्वशरीर बनायेगा कि अन्य सृष्टि बनायेगा ? दूसरी तरफ यदि आप ईश्वर को सर्वगत-सर्वव्यापी मानते हैं तो किस तरह मानते हैं ? शरीर से या ज्ञान से? एक शरीर से तो कोई भी शरीरधारी सर्वव्यापी हो नहीं सकता और होगा तो मनुष्यादि भी हो जायेंगे । चूंकि ये भी शरीरधारी हैं। अच्छा तो शरीर से ही ईश्वर सर्व लोक व्यापी - तीनों लोक व्यापी हो जायेगा। तो फिर दूसरे बनाने योग्य निर्मेय पदार्थों के लिए स्थान ही नहीं रहेगा तो बनायेगा कहां ? यदि ईश्वर एक स्थान पर रहकर ज्ञान योग से सर्वव्यापी है ऐसा कहें तो हमारा सर्वज्ञ पक्ष सिद्ध होता है। परन्तु सर्वज्ञ वह है कर्म की गति नयारी
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