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सोचता तक नहीं है । जैसे शरीर में रोग उत्पन्न हो सकते हैं वैसे आत्मा में भी रोग हो सकते हैं। आत्मा को भी रोग लागु पड गया है, वह है भव रोग। भव रोग अर्थात् सतत् जन्म-मरण धारण करते रहना । एक जन्म से दूसरे जन्म में, एक भव से दूसरे भव में, एक गति से दूसरे गति में सतत परिभ्रमण चलता ही रहता है। इसका नाम है भव रोग । यह शरीर को नहीं आत्मा को लागू होता है। आत्मा इस रोग से पीड़ित है। जिस तरह शरीर के शारीरिक रोगों के पीछे खान-पान आदि की अनियमितता वातपित्त-कफ की विषमता, या किटाणु आदि कारण भूत रहते हैं उसी तरह आत्मा के इस भव के पीछे कर्म' ही कीटाणु(वायरस) के रूप में है । कर्म ही एक मात्र कारण के रूप में है।
वैद्य, हकीम या डॉक्टर जिस तरह शरीर को जांच करके रोग के कारण का पता लगाते हैं और चिकित्सा करके ठीक भी करते हैं उसी तरह देवाधिदेव सर्वज्ञ भगवान और गुरु महारज भी हमारे भव रोग के ज्ञाता है। जानकार है। उन्हों ने पाप कर्म को हमारे रोग का कारण बताया है। यही सही निदान है। उसकी चिकित्सा के रूप में तप-त्याग रूप धर्म की उपासना बताई है। अपथ्य सेवन न करने के रूप में पाप कर्म बांधती है तो पुनः भव परंपरा बढ़ती ही जाएगी। अतः ज्ञानी गीतार्थ गुरु भगवन्तों ने पाप सेवन को कुपथ्य के रूप में वयं बताया है। धर्म को चिकित्सा पद्धति के रूप में समझाया है। शारीरिक रोगों से पीड़ित देह रोगी,रोग की वेदना समझकर शीघ्र ही वैद्य-डॉक्टर के पास चला जाता है और चिकित्सा प्रारम्भ कर लेता है। परंतु भवरोगार्त-भव रोग से पीड़ित। यह जीवन भव रोग को समझ ही नहीं पाता है । पहचान ही नहीं पाता है। आश्चर्य ईस बात का है कि स्वयं जीव जिस भव रोग से अनादि-अनंत काल से पीड़ीत है फिर भी इस रोग को नहीं समझ पा रहा है । तो फिर बचने की चिकित्सा की बात कहां से सोचेगा ? समझने की बात तो दूर रही परन्तु भव रोग है कि नहीं यह सोचने के लिए भी तैयार नहीं है। इसे चाहे आप अज्ञानता कहो या मोहग्रस्तता कहों या जो भी कुछ कहो लेकिन यह हकीकत सत्य ही है कि जीव आज दिन तक इस विषय में शोध नहीं कर रहा है। देह रोग को समझकर उससे बचने के लिए चिकित्सा करने वालों की प्रतिशत संख्या कितनी बडी है ? शायद ९९% होगी । परंतु भव रोग से पीडित संसार का संसारी जीव इसे समझने के लिए प्रयत्न करने वाले, इसके कारण की शोध करने वाला या, चिकित्सा कराने के लिए सज्ज हुए शायद २-५ या १०% भी मिलने मुश्किल है। भव रोग के त्राता प्रभु से प्रार्थना :
भवरोगात जन्तुनामगदंकार दर्शनः । निःश्रेयस श्री रमणः श्रेयांसः श्रेयसेस्ऽतु वः ।।
कर्म की गति नयारी