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एक एक इन्द्रिय में जन्म धारण करता हुआ ऊपर आता है। यहां तक कि पशु-पक्षी में से ऊपर उठकर मनुष्य गति में मनुष्य बन जाता है। चाहे स्त्री बने या पुरुष, आखिर दोनों ही है तो मनुष्य गति के जीव । मनुष्य गति में स्त्री-पुरुष के सिवाय तीसरी कोई पर्याय नहीं है। मनुष्य बनकर भी संसार के सैंकड़ो पाप करता है । पुनः अधःपतन। नरक में जाता है। वहां से वापिस घोडे-गधे के जन्म धारण करता है। ४५ आगमों में अंग सूत्र विपाकसूत्र में बताया गया है कि मनुष्य पर्याय में किए हए भयंकर पापकर्मों के विपाक अर्थात् फल को भुगतने के लिए जीव नरक गति और वहां से भी तिर्यंच गति के भव धारण करता है। इतना ही नहीं भयंकर पापो के आधीन जीव को विकलेन्द्रिय में पुनः कीडे,मकोडे बनना पड़ता है। तथा इससे भी ज्यादा नीचे एकेन्द्रिय पर्याय में पुनः जाकर पेड-पौधे के जन्म धारण करता है। इस तरह एक जन्म में किए हुए पापों की सजा भुगतता हुआ जीव असंख्य वर्षों का समय नीकाल देता है। उदाहरणार्थ मृगापुत्र का जीव, उज्झीतक कुमार का जीव, ब्रह्मदत्त का जीव, अंजुसुता का जीव आदि कई दृष्टान्त विपाकसूत्र के दुःख विपाक विभाग में दिये हैं। कितनी बार नरक गति में जीव जाता है। कितने जन्म तिर्यंच गति में पशु-पक्षी के बिताता है, और कितना नीचे गिरता है। यह है जीव के चढ़ाव-उतार की स्थिति। जीव का पुनः निगोदमें जाना :
उत्थान और पतन तो संसार परिभ्रमण का स्वरूप है। बिना इनके संसार में भटकना नहीं होता । चक्र में परिभ्रमण का जो यह चित्र बताया गया है इसमें जिस तरह एक के बाद दूसरे जन्म बताए गए हैं यह ध्यान से देखिए। जीव क्रमशः ऊपर चढ़ता पंचेन्द्रिय पर्याय में भी मनुष्य गति में आया। मनुष्य जन्म में खाने-पीने के निमित्त भी महा भयंकर पाप करता है। मांसाहार-अंड़े आदि का सेवन करता है। उसी तरह इस पापी पेट को भरने के लिए अनन्तकाय का सेवन करता है। आलु, प्याज, लहसुन, अदरक, गाजर, मूली आदि अनंतकाय अर्थात् साधरण वनस्पतिकाय के स्थूल जीव है । एक बार खाने से अनंत जीवों कि हिंसा होगी। अतः मैं इससे तो बचुं, ऐसी दया का भाव भी नहीं है, वह क्या दया पालेगा? कई भयंकर पापों के परिणाम स्वरूप तीव्र मोह एवं भयंकर अज्ञान के कारण किए हुए पापों का परिणाम यह आता है कि जीव गिरकर पुनः निगोद के गोले में चला जाता है। जिस निगोद के गोले से बाहर निकलने में अनंत काल बीत चुका था,जहां से अपनी संसार यात्रा प्रारंभ की थी, आज वापिस वहीं जाकर गिरा । सोचिए! अधःपतन की यह अन्तिम चरम कक्षा है। शास्त्रकार महर्षि तो यहां तक कहते हैं कि-मनुष्य गति में कोई दीक्षा लेकर साधु भी बन जाय और आगे बढ़कर चौदहपूर्वी-१४ पूर्वधारी ज्ञानी-परम गीतार्थ भी बन जाय वे भी पुनः निगोद में जा सकते हैं। कितने ऊपर से
कर्म की गति नयारी
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