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आपके पंजाब प्रवेश करते हीं 'आचार्य' पदवी का सवाल सामने आया । स्वर्गीय आत्मारामजी महाराज साहब के संघाड़े (समुदाय ) में दो मुनिराज — प्रवर्त्तकजी श्री कान्तिविजयजी महाराज तथा शान्तमूर्त्ति श्री हंस विजयजी महाराज से श्रीसंघ ने प्रार्थना की कि वे आप श्री को आज्ञा दें कि आप आचार्य पद स्वीकार करलें । उस वक्त आपके साथ में विराजमान वयोवृद्ध, चारित्र वृद्ध मुनिराज श्री सुमतिविजयजी महाराज ने भी आप श्री जी को आचार्य पद स्वीकार करने का आग्रह किया । आप में यह बड़ी भारी विशेषता है कि चाहे कुछ भी हो आप वृद्ध साधु मुनिराजों की आज्ञाओं का कभी उल्लंघन नहीं होने देते । आप तो अब भी इस पदवी के इच्छुक न थे । आपकी समझ में वह अब भी झंझट ही था, किन्तु समाज की इच्छा भी तो कोई स्थान रखती है ?
संवत् १६७६ के चौमासे से ही बातचीत चल रही थी | चलते चलते संवत् १६८१ में कुछ निश्चय हुआ । मुनि महाराज प्रवर्त्तकजी श्री कान्तिविजयजी महाराज तथा शान्तमूर्त्ति मुनिराज श्री हंसविजयजी महाराज साहिब ने संघ के आग्रह को मान देकर आपको आचार्य पद स्वीकार करने के लिए तार दिए, पंजाब श्री संघ ने सम्मुख होकर निवेदन किया ।
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