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सरदार कर्तारसिंहजी (जो कि वहां के पोस्ट और तार मास्टर थे) ने आपको एक महीने तक वहीं विराज कर धर्मोपदेश देने की प्रार्थना की। आपने उसके उत्तर में कुछ आनाकानी की, तब कर्तारसिंहजी ने अपने पोस्ट
ऑफिस की चाबियाँ आपके पैरों में रख दी और कहा:। “जब तक आप स्वीकृति न देंगे, तब तक मैं इन पोस्ट आफिस की चाबियों को नहीं उठाऊँगा; चाहे सरकार मुझे कुछ भी दण्ड दे, चाहे मेरे बाल बच्चे भूखों ही क्यों न मरें।” श्रद्धा इसे कहते हैं। आखिर आपने वहीं रहना स्वीकार किया।
पपनखा के पास किला दीदारसिंह है। वहाँ सौवर्णिक सरदार को आपके व्याख्यान सुनने की ऐसी चाट पड़ गई कि जब तक आपके श्रीमुख से कुछ उपदेश नहीं सुन लेते तव तक उन्हें चैन नहीं पड़ती।
साधारण जन आपकी वाणी से मुग्ध हों इसमें तो कहना ही क्या ? किन्तु जो विशेष पुरुष कहलाते हैं वे भी आपकी वाणी के कायल हो जाते हैं।
एक वक्त जब कि आप गुजरांवाला में विराजमान थे। आचार्य महाराज श्रीमद्विजय कमलमूरिजी ने आपकी पीठ पर स्नेह पूर्ण हाथ फेरा और कहा-“यदि सच्चे गुरुभक्त हों तो तुम्हारे जैसे ही हों। तुमने स्वर्गवासी
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