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(१६५) तथा पंजाब श्रीसंघ की ओर से 'श्रद्धाञ्जलि' रूप मानपत्र अर्पित किया गया । आपने उसके उत्तर में इतना ही कहा कि आप इस बहुमान के योग्य अपने आपको नहीं समझते। अतः उस समय तक आप इस मानपत्र को श्री संघ की अमानत समझ कर श्रीसंघ के पास ही रख देना चाहते हैं, जब तक कॉलेज सम्बन्धी आपकी अपील और गुरु महाराज की भावना सफल न हो।
इस समय भारतवर्ष के कोने २ से आपकी दीक्षाअर्द्धशताब्दि के निमित्त सफलता चाहने के, और आपके चिरंजीव होने के लिये तार चिट्टियों से समाचार आये ।
इस अवसर पर जहां आपके स्वर्णाक्षरों में लिखे जाने योग्य भिन्न २ प्रकार के जैनधर्म की प्रभावना के निमित्त किये गये कार्यों का वर्णन किया गया वहां आपकी अनुपम गुरु-भक्ति की भी मुक्त कण्ठ से प्रशंसा की गई। वास्तव में आपके सम्बन्ध में इतना कह देना सर्वथा उचित ही है कि आपका जो सन्मान और आपके लिये जो श्रद्धा व भक्ति भारतवर्ष के जैन समाज के हृदय में है उसका मुख्य कारण अन्य उपकारक कार्यों से भी बढ़कर आपकी अद्वितीय गुरुभक्ति हैं। स्वर्गीय महाराज की दिगन्त-व्यापिनी कीर्ति का बहुत कुछ श्रेय आपको भी है।
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