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आपने अपने दिल में यह प्रतिज्ञा ली कि “जब तक पूरा १ लाख रुपया जमा नहीं हो जायगा तब तक मैं मिष्टान्न नहीं खाऊँगा ।" आपने उसी प्रतिज्ञा को कार्य-पूर्ति पर्यन्त बराबर निभाया ।
आपमें त्याग-वृत्ति बड़ी जबर्दस्त है । जो धार लेते हैं पूरा करके ही छोड़ते हैं, चाहे उसमें कितनी ही कठिनाइयाँ क्यों न आवें ।
आपने जब मिष्ठान्न छोड़ा था ता आपको कभी स्वम में भी ऐसा ख़याल नहीं आता था कि मैंने मिष्ठान्न छोड़ दिया । जब साधुओं के साथ आप भोजन करने बैठते तब साधु महाराज आपसे कहते - "गुरुदेव ! हम मिष्ठान्न खा रहे हैं और आप केवल सादा भोजन (दाल रोटो ) ही ग्रहण कर रहे हैं ।" उस वक्त के आपके वचन स्वर्णाक्षरों में अङ्कित करने योग्य हैं । आपने कहा - " भाई ! द्वीपान्तरों में पैदा होने वाली चीज हमने आज दिन तक खाई नहीं और न उसकी हमें कभी लालसा ही रहती है, एवमेव जब तक यह काम पूरा न होवे तब तक हम इन मिष्ठान्न को द्वीपान्तरीय ही समझे बैठे हैं ।" कितना त्याग और कितना धैर्य ? इतनी बड़ी प्रतिज्ञा ली किन्तु किसो को पता तक नहीं दिया कि यह प्रतिज्ञा इस कारण से ली है । धन्य है ऐसे त्यागी महात्माओं को !
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