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जैनविद्या 14-15
एवं वीतराग मार्ग के प्रति सम्पूर्ण समर्पण भाव व्यक्त होता है। इन रचनाओं में ज्योतिष, गणित, बीजगणित एवं निमित्त ज्ञान आदि का भी समावेश हुआ है।
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विशद आधार
वीरसेन की टीका का आधार वीतराग परम्परा से चला आया गुरु-ज्ञान-परक सिद्धान्त ज्ञान था। उन्होंने तत्कालीन उपलब्ध दिगम्बर- श्वेताम्बरीय शास्त्रों एवं बौद्ध ग्रंथों का भी विशद अध्ययन किया था जिनका उल्लेख धवला - जयधवला टीकाओं में हुआ है । आचारांगनिर्युक्ति, अनुयोगद्वार सूत्र, दशवैकालिक, स्थानांग सूत्र, नन्दि सूत्र और ओघ निर्युक्ति आदि श्वेताम्बरीय ग्रंथ हैं जिनका उपयोग वीरसेन ने किया है। एक छेदसूत्र का भी उल्लेख है । अन्य दर्शनों के ग्रंथों में बौद्ध कवि अश्वघोष के सौदरानन्द काव्य, धर्मकीर्ति के प्रमाणवार्तिक, ईश्वर कृष्ण की सांख्यकारिका और कुमारिल भट्ट के मीमांसा - श्लोककार्तिक से भी एक-दो उद्धरण दिये हैं ।
वीरसेन स्वामी विद्याप्रेमी थे। उन्होंने धवला और जयधवला टीकाओं में जैनाचार्यों के ग्रंथों के उद्धरण देकर अपने व्यापक दृष्टिकोण का परिचय दिया है। जैन साहित्य प्रथमानुयोग, . करणानुयोग, द्रव्यानुयोग एवं चरणानुयोग में विभक्त है। इन सब अनुयोगों का अपना-अपना दृष्टिकोण है। करणानुयोग सर्वज्ञ ज्ञानाधारित गणित एवं कर्म-विधान प्रधान है। द्रव्यानुयोग स्वपर भेद-विज्ञान एवं न्याय-पद्धति पर आधारित अनुभवपरक है, जबकि चरणानुयोग नीतिगत आचरणपरक है। प्रथमानुयोग अलंकार - काव्यपरक है। आचार्य वीरसेन ने सभी अनुयोगों के उद्धरणों का उपयोग वीतरागता के पोषण एवं पुष्टि में किया । पूर्वाग्रह में कहीं किसी अनुयोग के कथन से विपरीत निष्कर्ष नहीं निकाले। उन्होंने सतकम्मपाहुड, धरसेनाचार्यकृत योनिप्राभृत, कुन्दकुन्दकृत परिकर्म, प्रवचनसार, समयसार, पंचास्तिकाय, अष्टपाहुड, यतिवृषभरचितचूर्णि - सूत्र और तिलोयपण्णत्ति, उच्चारणाचार्यकृत उच्चारणावृत्ति, वट्टकेरकृत मूलाचार, शिवार्यरचित भगवती-आराधना, गृद्धपिच्छाचार्यकृत तत्वार्थसूत्र, समन्तभद्रकृत आप्तमीमांसा, वृहतस्वयंभू, युक्तयनुशासन, सिद्धसेनरचित सन्मतिसूत्र, पूज्यपाद - रचित सारसंग्रह, अकलंकदेव-रचित तत्वार्थभाष्य, सिद्धिविनिश्चय एवं लघीयस्त्रय, धनंजय कवि कृत नाममालाकोश, वाप्पभट्टरचित उच्चारणा तथा व्याख्याप्रज्ञाप्ति, पिंडिया, प्राकृत पंचसंग्रह, जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति, अंगपण्णत्ति आदि ग्रंथों के सार को समझकर उनके उद्धरणों का समुचित - सही उपयोग टीकाओं में किया। ऐसा करते समय उनकी दृष्टि स्वपांडित्य-प्रदर्शन की न होकर तत्व एवं सिद्धान्त के सम्यक् प्रकाशन की ही रही। उनकी यही महानता उन्हें दिव्यता / भव्यता प्रदान करती है। इन ग्रंथों के अध्ययन से उनकी कुशाग्र बुद्धि अत्यन्त निर्मल, समत्वभावी, तत्व-मर्मज्ञ एवं समन्वित - दृष्टियुक्त हो गयी थी।
नय-दृष्टि से पदार्थों का परिज्ञान
आग्रहविहीन दृष्टि से वस्तु स्वरूप की समग्रता का बोध होता है। इस विचार की पुष्टि में वीरसेन ने कहा कि जिनेन्द्र भगवान के मत में नयवाद के बिना सूत्र और अर्थ कुछ भी नहीं कहा गया है । इसलिये जो मुनि नयवाद में निपुण होते हैं वे सच्चे सिद्धान्त के ज्ञाता समझने चाहिये । अतः जिसने सूत्र अर्थात् परमागम को भली प्रकार जान लिया है उसे ही अर्थ-सम्पादन में नय