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जैनविद्या 14-15
होती है। यह बात और है कि इनकी छठे खण्ड की टीका विशद न होकर संक्षिप्त व्याख्या को प्रस्ताविका है।
षट्खण्डागम की पहली टीका तीर्थंकरोपम आचार्य (ईसवी सन् की पहली-दूसरी शती) कुन्दकुन्दस्वामी द्वारा इसके प्रथम तीन खण्डों पर रची गई जो 'परिकर्म' नाम से आख्यात हुई। दूसरी टीका आचार्य कुन्दकुन्द के परवर्ती आचार्य समन्तभद्र (ईसवी सन् की दूसरी शती) द्वारा इसके प्रथम पाँच खण्डों पर रची गई। तत्पश्चात् इसकी तीसरी टीका आचार्य शामकुण्ड (ईसवी तृतीय शती) द्वारा इसके प्रथम पाँच खण्डों पर रची गई। ग्रन्थ की चौथी और अन्तिम टीका आचार्य वीरसेन द्वारा लिखी गई। कहना न होगा कि जैन वाङ्मय में षट्खण्डागम पर लिखी गई 'धवला' टीका अपने-आप में महतोमहीयसी है।
आचार्य वीरसेन मूल ग्रन्थ न लिखकर केवल धवला' टीका के प्रणयन के प्रति ही समर्पित रहे और टीका-जगत् में अपने वैदूष्य की क्रोशशिला के संस्थापक टीकाकार के रूप में इतिहासप्रतिष्ठ हुए। महान टीकाकार आचार्य वीरसेन की दो ही टीका-रचनाएँ उपलब्ध हैं - 'धवला'
और 'जयधवला'। 'जयधवला' टीका अपूर्ण है। इसके बारे में उक्त 'जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश' से सूचना मिलती है कि आचार्य यतिवृषभकृत (ईसवी सन् की छठी-सातवीं शती) षट्खण्डागम के अन्तर्गत 'कषायपाहुड' ग्रन्थ की साठ हजार श्लोकप्रमाण विस्तृत टीका मिलती है जिसमें बीस हजार श्लोकप्रमाण भाग तो आचार्य वीरसेन का है और शेष चालीस हजार श्लोकप्रमाण भाग स्वामी वीरसेन के विद्वान् शिष्य आचार्य जिनसेन (ईसवी सन् की आठवीं-नवीं शती) द्वारा प्रणीत है। यह अपूर्णता आचार्य वीरसेन के असमय कालगत होने के कारण ही रह गई।
आचार्य वीरसेन की धवला टीका बहत्तर हजार श्लोकप्रमाण है जिसे इन्होंने प्राकृत और संस्कृत मिश्रित भाषा में मणिप्रवाल-शैली में गुम्फित किया है। एक व्यक्ति ने अपने जीवन में बानवे हजार श्लोकप्रमाण रचनाएँ की, यह अपने-आपमें आश्चर्य का विषय है। इन दोनों टीकाओं से आचार्य वीरसेन की बहुज्ञता और विशेषज्ञता एक साथ प्रकट होती है, साथ ही इनकी सैद्धान्तिक विषयों की विस्मयकारी सूक्ष्मेक्षिका भी संकेतित होती है।
आचार्य नेमिचन्द्र शास्त्री के प्रसिद्ध ऐतिहासिक ग्रन्थ 'तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा' के आचार्य वीरसेन के प्रकरण में उल्लेख मिलता है कि बप्पदेव की टीका को देखकर वीरसेनाचार्य को धवला टीका लिखने की प्रेरणा प्राप्त हुई। पुण्यश्लोक शास्त्रीजी ने यह उल्लेख आचार्य इन्द्रनन्दी के 'श्रुतावतार' के आधार पर किया है। इस सन्दर्भ में जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश' से विशिष्ट सूचना मिलती है कि बप्पदेव ही 'बापदेव' के नाम से जाने जाते थे। उन्होंने 'उत्कलिका' ग्राम के समीपस्थ 'मणवल्ली' ग्राम में आचार्य शुभनन्दी तथा आचार्य रविनन्दी से ज्ञानोपदेश प्राप्त करके षट्खण्डागम के प्रथम पाँच खण्डों पर 'व्याख्याप्रज्ञप्ति' नाम की टीका तथा तदन्तर्गत छठे खण्ड के 'कषायपाहुड' की 'उच्चारणा' नाम की एक संक्षिप्त टीका लिखी। तत्पश्चात् चित्रकूट ग्राम में आचार्य वीरसेन ने बापदेव स्वामी के निकट सिद्धान्त का अभ्यास करके षट्खण्डागम के प्रथम पाँच खण्डों पर 'धवला' नाम की टीका रची। आचार्य वीरसेन के अनुसार बापदेव का समय ईसवी सन् की आठवीं शती है।