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जैनविद्या 14-15
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मुत्तरस शत्रु भयंकर (726-776 ई.) द्वारा समादृत तथा निर्गुन्डराज के राजनीतिक विद्यागुरु विमलचन्द्र, राष्ट्रकूट कृष्ण प्रथम की सभा में वाद-विजय करनेवाले परवादिमल्ल, अकलंकदेव के प्रथम टीकाकार अनन्तवीर्य प्रथम, तत्वार्थश्लोकवार्तिक, अष्टसहस्री आदि के कर्ता विद्यानन्दि, हरिवंशपुराणकार जिनसेनसूरि, रामायण आदि के रचयिता अपभ्रंश के महाकवि स्वयंभू आदि उल्लेखनीय हैं । चित्तौड़-निवासी श्वेताम्बराचार्य याकिनी-सूनु हरिभद्रसूरि भी इनके समकालीन थे। भट्टाकलङ्कदेव को अपनी बाल्यावस्था में स्वामी वीरसेन ने देखा-सुना हो सकता है, उनका स्मरण वीरसेन 'पूज्यपाद' नाम से करते थे। स्वामी वीरसेन ने अपनी धवला टीका की समाप्ति सन् 781 ई. (विक्रम सं. 838) में की थी और 793 ई. के लगभग उनका स्वर्गवास हो गया प्रतीत होता है। इसमें सन्देह नहीं है कि वाटनगर में ज्ञानकेन्द्र को स्वामी वीरसेन ने उन्नति के चरम शिखर पर पहुंचा दिया था। ___ उनके पश्चात् संस्थान का कार्यभार उनके प्रिय शिष्य जिनसेन स्वामी ने संभाला। यह अविद्धकर्ण बाल-तपस्वी भी अद्भुत प्रतिभासम्पन्न थे। पार्वाभ्युदय काव्य उनके काव्य-कौशल का उत्तम परिचायक है। सन् 837 ई. (शक सं.759) में उन्होंने गुरु द्वारा अधूरे छोड़े कार्य - जयधवल के शेषांश को लगभग 40,000 श्लोक-परिमाण पूर्ण किया। इस महाग्रन्थ का सम्पादन उनके ज्येष्ठ सधर्मा श्रीपाल ने किया था। ऐसा लगता है कि तदनन्तर जिनसेन ने महापुराण की रचना प्रारम्भ की, किन्तु वह उसके आद्य 10,380 श्लोक की ही रचना कर पाए और उनमें प्रथम तीर्थंकर आदिनाथ का चरित्र भी पूरा न कर पाये कि 850 ई. के कुछ पूर्व ही उनका निधन हो गया। __राष्ट्रकूट सम्राट अमोघवर्ष प्रथम नृपतुंग (815-877 ई.) उन्हें अपना गुरु मानता था और यदा-कदा राज्य-कार्य से विराम लेकर उनके तपोवन में आकर उनके सान्निध्य में समय व्यतीत करता था। वह स्वयं भी अच्छा विद्वान और कवि था। स्वामी जिनसेन के समकालीन विद्वानों में उनके गुरु एवं सधर्माओं के अतिरिक्त हरिवंशपुराणकार जिनसेनसूरि, स्वामी विद्यानन्दि, अनन्तवीर्य द्वितीय, अर्ककीर्ति, विजयकीर्ति स्वयंभूपुत्र कवि त्रिभुवनस्वयंभू, शिवकोट्याचार्य, वैद्यकशास्त्र कल्याणकारक के रचयिता उग्रादित्य, गणितसारसंग्रह के कर्ता महावीराचार्य और वैयाकरणी शाकटायन पाल्यकीर्ति उल्लेखनीय हैं। इनमें से कम से कम अन्तिम तीन को भी सम्राट अमोघवर्ष का प्रश्रय प्राप्त हुआ था।
स्वामी जिनसेन के प्रधान शिष्य आचार्य गुणभद्र थे, जिन्होंने गुरु के अधूरे छोड़े आदिपुराण को संक्षेप में पूरा किया तथा उत्तरपुराण के रूप में अन्य 23 तीर्थंकरों का चरित्र निबद्ध किया। उन्होंने आत्मानुशासन और जिनदत्तचरित्र की भी रचना की। कहा जाता है कि सम्राट अमोघवर्ष ने अपने युवराज कृष्ण द्वितीय का गुरु उन्हें नियुक्त किया था।गुणभद्राचार्य का निधन कृष्ण द्वितीय के राज्यकाल (878-914 ई.) के प्रारंभ में ही, लगभग 880 ई. में हो गया लगता है। उनके समय तक इस परम्परा के गुरुओं का ही वाटग्राम के केन्द्र से सीधा एवं प्रधान सम्बन्ध रहा और वह पूर्ववत् फलता-फूलता रहा, किन्तु गुणभद्र के उपरान्त उसकी स्थिति गौण होती गई।