Book Title: Jain Vidya 14 15
Author(s): Pravinchandra Jain & Others
Publisher: Jain Vidya Samsthan

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Page 80
________________ जैनविद्या 14-15 73 उत्तर - नहीं, क्योंकि करुणा जीव का स्वभाव है, अतएव उसे कर्मजनित (कर्मोदय से) मानने में विरोध आता है। अर्थात् यह औदयिक भाव नहीं है, यह किसी कर्म के उदय से नहीं होती। प्रश्न - तो फिर अकरुणा का कारण कर्म कहना चाहिए? उत्तर - यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि उसे संयमघाती कर्मों के फलरूप से स्वीकार किया गया है। श्री वीरसेनाचार्य के उपर्युक्त कथन से स्पष्ट है कि करुणा और करुणा के समानार्थक अनुकंपा, वात्सल्य, मैत्री, वैयावृत्य (सेवा), दया आदि गुण हैं, ये सब जीव के स्वभाव हैं । जीव के स्वभाव होने से धर्म हैं, धर्म होने से कर्मों का क्षय करनेवाले हैं, मुक्ति दिलानेवाले हैं। करुणा, अनुकंपा आदि भाव किसी भी कर्म के उदय से नहीं होते हैं । अतः औदायिक भाव नहीं हैं। औदायिक भाव न होने से कर्म-बंध के कारण नहीं हैं। क्योंकि भाव पांच हैं - औदायिक, क्षायिक, औपशमिक, क्षायोपशमिक एवं पारिणामिक। इन भावों में से केवल औदायिक भावों को ही कर्म-बंधन का कारण कहा गया है। क्षायिक, औपशमिक एवं क्षायोपशमिक भाव से कर्म क्षय होते हैं ऐसा नियम ही है। . यही नहीं, श्री वीरसेनाचार्य ने स्पष्ट शब्दों में अकरुणा को संयमघाती कर्मों का फल कहा है। इससे स्पष्ट है कि जो करुणा-रहित है, जिसमें करुणा का अभाव है, वहां संयम का अभाव है, क्योंकि जिनकर्मों के उदय से संयम का घात होता है उन्हीं कर्मों के उदय से अकरुणा उत्पन्न होती है। अतः वर्तमान में जो करुणा, अनुकंपा, दया, दान आदि को विभाव मानते हैं वे जैनागम विरुद्ध हैं। तत्वार्थसूत्र में करुणा, मैत्री को संवर तत्व में स्थान दिया है। रत्नकरण्ड श्रावकाचार में निःशंकित, नि:कांक्षित आदि सम्यक्त्व दर्शन के आठ अंगों में वात्सल्य को भी गिनाया है। यदि वात्सल्य को विभाव व विकार ही माना जाय तो निःशंकित, निःकांक्षित आदि सभी गुणों को व सम्यक्दर्शन को भी विभाव व विकार मानना पड़ेगा। इसी प्रकार सम, संवेग, निर्वेद, अनुकंपा, आस्था आदि सम्यक्त्व के लक्षण हैं, यदि इनमें से अनुकंपा को विभाव व औदायिक भाव माना जाये तो संवेग, निर्वेद तथा सम्यक्त्व को औदायिक भाव व विभाव मानना होगा। जो जैनागम एवं कर्म-सिद्धान्त तथा तत्वज्ञान के विरुद्ध है। श्री वीरसेनाचार्य ने अकरुणा को संयमघाती कर्मों का फल बताया है। अतः आज जो 'अनुकंपारहित हैं उन्हें पाप-कर्म का आस्रव होता है। जिनकी अनुकंपा में जितनी कमी उतना ही पापास्रव अधिक होता है। इससे स्पष्ट है कि जो करुणाहीन हैं, अनुकंपारहित हैं उन्हें संयम हो ही नहीं सकता, जब संयम ही नहीं हो सकता तब वे वीतराग कैसे हो सकते हैं ? कदापि नहीं हो सकते। आज जो इधर कुछ पंडित करुणा, दया, दान आदि शुभभावों को विभाव बतला रहे हैं - यह कहां तक उचित है ? उपर्युक्त मान्यता आगम-विरुद्ध है तथा घोर अमानवता व अधर्म की सूचक है। मुक्ति में न जाने का वास्तविक कारण कषाय का पूर्ण रूप से क्षय नहीं होना है। कषाय पूर्ण क्षय ना होने से पुण्य का उत्कृष्ट अनुभाग नहीं होता और यह नियम है कि क्षपक श्रेणी में जब पुण्य प्रकृति का उत्कृष्ट अनुभाग होता है तब ही केवलज्ञान होता है। पुण्य के उत्कृष्ट अनुभाग के अभाव में

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