Book Title: Jain Vidya 14 15
Author(s): Pravinchandra Jain & Others
Publisher: Jain Vidya Samsthan

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Page 91
________________ 84 जैनविद्या 14-15 1.4 जो जासु को वि पुज्जइ णवेवि । सो भुवणि होइ तारिसु मरेवि ॥ जो पुज्जइ ढोरु सो होइ ढोरु । चोरह सेवंतह होइ चोरु ॥ सप्पहो पुजंतह सप्पु होइ । भिक्खिय संगे लक्खिउ ण कोइ ॥ एयाइ देव कुच्छिय अणेय । चेयण वि अचेयण विविह भेह । जो मूढ वुद्धि पुज्जइ णवेवि । सो चउ गइ दुहभायणु हवेइ ॥ इय जाणिवि जोच्छंडई कुदेउ । जिणवर जगणाहहो करइ सेवु । उप्पज्जइ मरिवि सु देवलोइ । जगगुरु - पुज्जइ सुरपुज्जु होइ ॥ माणिवि सुर रमणि विमाण सोक्खु । होइ वि णरिंदु पुणु लहइ मोक्खु ॥ एउ मुणिवि चित्ति अरहंतु देउ । आराहहि कय संसारच्छेउ ॥ परिहरिवि जम्मजरमरण - दुक्खु । पावहि अणंतु णिव्वाण सुक्खु ॥ पत्ता - एरिसु मइ अक्खिउ, देउ परिक्खिउ, णिच्छिउ जीव मुणिज्जहि । एवहि गुरु भासमि, तुन्झु पयासमि, एक्कचित्तु, णिसुणिज्जहि ॥4॥ 1.5 जो गुरु अमुणिय जिणधम्म - मग्गु । वय वज्जिउ इंदिय - विसय-भग्गु ॥ कोहग्गि पलित्तउ माणदढ्ढु । मायारउ लोह-दवग्गि दढ्ढु । कुच्छिउ धम्मालसु वंभहीणु। उड्डिय करु अणदिणु णाय दीणु ॥ अण्णाणधम्मु पयडइं णराहं । सो सइ वुड्डइ वोलइ पराह । सो पुणु जाणिज्जइ गुरु महंतु । जो दंसण णाणचरित्तवंतु ।। जो जाणइ णिच्छइ मोक्खमग्गु । मायाविहीणु दरिसइ समग्गु ॥ हय कोह माणु परिहरिय लोहु । कय मित्तिभाउ णासिय विरोहु । जो जीव - दयावरु सच्चभासि । वज्जिय अदत्त दिढ वंभरासि ॥ जो कय इंदिय जउ मुक्कु संगु । ण करइ कयावि चारित्तभंगु । जो सहिय परीसहु गलिय राउ । अरि सुहि तिण मणि मज्झत्थभाउ ॥ घत्ता - एकल्ल दियंवरु, जो कय संवरु, अट्ट रउद्दझाण - रहिउ । सो गुरु आवजहि, चलणइ पुज्जहि, झाइय धम्म - सुक्कु - सहिउ ॥5॥

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