Book Title: Jain Vidya 14 15
Author(s): Pravinchandra Jain & Others
Publisher: Jain Vidya Samsthan

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Page 93
________________ 86 जैनविद्या 14-15 जइ ते हउ पुणु पच्चक्खु गुरु । दीसइ ण को वि पय णविय सुरु ॥ तहि विहु कुच्छिय गुरु मय-सहिउ । मा वंदहि तव-संजम - रहिउ ॥ कुच्छिय गुरु पाउ ण अवहरइ । वोहित्थ कन्जु किं सिल करइ । इड वुझिवि परम जइसरहं । पय झायहि णिहरई सरहं ॥ भवियण जण-मण संवोहणहं । भव जलणिहि तारण पोहणहं ॥ मय - मोह - पमाय - अदूसियहं । पंचमचारित्त विहूसियहं ॥ थिय परम समाहि परिट्ठियहं। केवलसिरि सुह उक्कंट्ठियहं । परिवज्जिय भोये - भुयंगयहं । परमप्पयरूवलयंगयहं॥ सुमरंतहो गुणु जइयहो तणउ । तुव होइ परोखु महाविणउ । णिज्जरइ पाउ पुण्णु जि हवए । मुणि - गुण - चिंतई सुहु संभवए । घत्ता - केवलगुण - मंडिउ, दोसहि छंडिउ, आयमलोयणु अणुसरहिं । तुहु गुरु माणिज्जहि, हियइ धरिन्जहि, इयर असेसहि परिहरहिं ॥6॥ 1.7 अहो जीव विमल परिणाम जुअ । सुणि एवहि भासमि धम्मु तुव ॥ . जो कुगुरु - कुआगमि भासियउ । सो धम्मु ण होइ सुहासियउ ॥ जं पुणु केवलि जिण वज्जारिउ । महि गणहर देविहि वित्थरिउ ।। सुवकेवलि परिवाडिए गहिउ । णिग्गंथाइरियह जणे कहिउ । सो धम्मु खविय संसारमलु । जीवह दरिसइ सिव सुक्खुफलु । जिणुदेउ परम णिग्गंथ गुरु । दह लक्खणु धम्मु अहिंसपरु ।। जो णिच्छइ भावे सद्दहइ। सम्मत्तरयणु फुडु सो हवइ । सुणि इक्कह भावि इक्कमणु । करि मज्ज मंस महु परिहरणु ॥ पंचुवर - फल वजण सहिउ । वसु भेय मूलगुण तुव कहिउ ।। इय पढम अट्ठ जो परिहरइ । सो परु णरु उत्तरगुण धरइ॥ घत्ता - मइरा मक्खिउ पलु, पंचुवर फलु, विविध जीव - जम्भायरहं । तिविहि वन्जिजहि, णवि चक्खिज्जइं, दाविय भवदुह - सायरइं ॥7॥

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