Book Title: Jain Vidya 14 15
Author(s): Pravinchandra Jain & Others
Publisher: Jain Vidya Samsthan

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Page 107
________________ 100 जैनविद्या 14-15 1.20 रिण संबंधे एउ करंतहं । पाउ ण लग्गइ पंजलि चित्तहं । पाउ - हीणु जहि कहि उप्पज्जइ । तहि रिणच्छेयण खमु संपज्जइ । रिणु मोडिव्वई जसु मई वट्टइ । सो भवि-भवि दुखिहि आवट्टइ । अह तुव धणु वलिवंडई केण वि । लयउ कयावि कुसील वलेण वि ।। झुट्ठउ झगड़उ अलिउ धरेविण । वीसासिवि पुणु वंधु करेविण ॥ तहवि तासु मा वुरहउ चिंतहि । महु एरिसु भवीसु इउ मंतहि ॥ अवसु आसिमई एउ विराहिउ । एवहि एव वयणु तं साहिउ । एउ चिंतिवि तिणि सहु खम किज्जइ । हउ फेडिउ अमु केण ण गिज्जइ ।। एवमाहि सुंदरु मणि भावहि । जिम चिरु सूरहि अप्प सहावहि ॥ वउ पालिज्जइ तेम पयत्तें। माया लोह कसाय कंयत्तें ॥ पत्ता - जिण मुणि आएसहु, जा किर देसहु, विरइ अदत्तादाणहो । तं तीयउ अणुव्वउ, दिढुव वसिव्वउ, पंथु परम णिव्वाणहो ।। 20।। इय अप्प संवोह कव्वे। सयलजणमण सुहंकरे।अव्वला बाल सुहु वुझ पयत्थे। पढमो संधी परिच्छेओ सम्मत्तो।

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