Book Title: Jain Vidya 14 15
Author(s): Pravinchandra Jain & Others
Publisher: Jain Vidya Samsthan

View full book text
Previous | Next

Page 108
________________ जैनविद्या 14-15 101 120 (साहूकार का ऋणी के प्रति सद्व्यवहारात्मक - चिन्तन) ऋण के संबंध में इस प्रकार करते हुए सरल चित्त के (को) पाप नहीं लगता है। पापहीन जहाँ कहीं उत्पन्न हो जाता है। अतः क्षमापूर्वक ऋण छेदन किया जावे। ऋण के मोड़ने/भंग करने में जिसकी बुद्धि प्रवर्तित होती वह भव-भव दुःखों से (दुःखपूर्वक चक्र के समान) परिभ्रमण करता है, अथवा तुम्हारा धन कभी किसी कुशील बलवान के द्वारा लिया गया, मिथ्यारोप करके झूठा झगड़ा किया गया (तो) विश्वासपूर्वक बन्धुता करके इतना होने पर भी उनके लिए बुरा मत चिन्तो। मेरा ऐसा ही भविष्य है - इस प्रकार परामर्श करो। इस प्रकार (ऐसा करने से) विराधितजन अवश्य आशीष देंगे। इस प्रकार यही वचन है उसे सिद्ध करो, ऐसा विचार कर उन पर (ऋणी पर) साहूकार के द्वारा क्षमा की जावे। मैंने विनाश किया यह किसी के द्वारा नहीं गाया जाता (कहा जाता)। इस प्रकार जैसा पूर्वाचार्यों द्वारा (कहा गया है) मन में सुन्दर/शुभ आत्म-स्वभाव भाओ। माया, लोभ (आदि) कषायों का अन्त करते हुए प्रयत्नपूर्वक उसी प्रकार व्रत पाले जावें । . घत्ता- जिन मुनियों के आदेश (और) देशना से (कवि) अदत्तादान (अणुव्रत) की रचना करता है। निर्वाण के परम पंथ उस तीसरे अणुव्रत को दृढ़ता से बसाया जाना चाहिए ।20। इस आत्म सम्बोध काव्य में सभी जनों के मन को सुखकर अबला-बालजनों के सुखरूपी जल-प्रवाह में प्रवाहित पदार्थवाला प्रथम परिच्छेद पूर्ण हुआ। जैनविद्या संस्थान श्रीमहावीरजी-322220

Loading...

Page Navigation
1 ... 106 107 108 109 110