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जैनविद्या 14-15
1.18
(अचौर्याणुव्रत के अन्तर्गत ऋणी के प्रति साहूकार का तथा नौकर का मालिक के प्रति
___कर्तव्य तथा धरोहर संबंधी चिन्तन) यदि किसी के पास से धन लेना है (तो) सुख (सरलता) से माँगो, फिर नहीं मिलता है, यदि धन अपना है तो बाँधकर, सघन, लंघन कराकर नहीं लिया जावे। धनिक (उसे) (धन) धरते हुए देखकर भी मुंह फेर लेता है, उससे घृणा (मत) करो। अपना द्रव्य लेते हुए भी उसके दोष (लगता) है। स्थिर दया का त्याग किये बिना आदर करता चले। यदि साहूकार (ऋणी को) पीड़ा देकर (धन) नहीं लेता है, क्षमा कर देता है, तो साहूकार देवलक्ष्मीवान् होता है। अथवा क्षमा नहीं करता है, विराधित करके (कर्ज) लेता है तो भव-भव में निर्धन (होकर) दु:खी (होता है)। घर काम करने आनेवाले किसी छोटे (कर्मचारी) को भी कुछ (या) बहुत धन दिया जावे। यदि किसी की धरोहर घर में रहती है (और वह) देश में, नगर में, काल को प्राप्त हो गया (मर गया) तो उसकी जो कोई भी स्त्री, पुत्र-संतान हो, उसकी लक्ष्मी को भोगे। किसी जन को साक्षी में लेकर वह लक्ष्मी (उसे) दे दी जावे अथवा यदि यह ठीक न हो (तो) जैनधर्म में उसे लाकर प्रकट (करे) (और) अपनी बुद्धि से संभावित करे।
घत्ता - चोर के द्वारा चुराये जाने पर भी, अथवा यदि किसी के द्वारा दण्ड देकर (लक्ष्मी) समर्थिक की गयी तो भी प्रत्यक्ष में चिन्ता नहीं करे। उसके प्रत्यक्ष क्षय (होने पर) हृदय दृढ़ करके क्रोध को क्षमा करो (क्रोध नहीं आने दो) । 18।
1.19 (अचौर्याणुव्रत संबंधी अतिचारात्मक चिन्तन) किसी की चोरी (चुरायी गयी वस्तु) नहीं लायी जावे। (और) न पराई वस्तु ताकी जावे। पराया अथवा अपना धन चुराते हुए यदि कोई महान पुरुष दिखाई देता है, तो उसे चोर नहीं कहकर छिपा लिया जावे। मौन रहकर हानि क्षमा की जावे। चन्द्रकला-शिला पर (और) वृक्ष पर जाती है। ऐसा करते हुए (वहाँ जाते हुए उसे) वर्मा से नहीं छेदा जाता। आना-जाना चोर के साथ नहीं किया जावे। चोर के द्वारा लायी गयी वस्तुएँ मौल नहीं ली जावें। राज्य-विरुद्ध सब त्यागा जावे। हीनाधिक माप-तौल न की जावे। चोखे बर्तनों में खोटे-बर्तनों का मिश्रण ठीक नहीं। नसों (हड्डियों) के भक्षण में महान पाप है। अल्प या बहुत, नया या पुराना किसी को धन देना, अथवा जो घर का नहीं है, वह देना (इसमें) विष देने की कल्पना की जावे। किये हुए उपसर्ग को साहूकार क्षमा करे, (यदि ऋणी) रहस्य विगोपन करता है तो मना लिया जावे।
घत्ता- निश्चय से जो-जो पूजता है (अपने पास है) वह-वह दिया जावे, शेष देने की इच्छा की जावे। दूंगा इस प्रकार कहे, शील नहीं छोड़े, मिथ्या व्यवहार कभी भी नहीं किया जावे । 19।