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जैनविद्या 14-15
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1.16 (सत्याणुव्रत के लिए आवश्यक आचार और अचौर्याणुव्रत संबंधी विचार-वर्णन)
अपनी प्रशंसा नहीं चाही जावे और दूसरों के शुभ गुण वह प्राप्त करे (उसके द्वारा प्राप्त किये जावें)। किसी का भी अनुपकार नहीं किया जावे। दूसरों से उपकार पाकर माना जावे, (स्वीकार किया जावे)। पाप करते हुए जीवों के लिए स्वामी जिनेन्द्र का उपदेश दिया जावे और धर्म में लाया जावे। इस प्रकार जिननाथ की अर्चना करके स्तुति की जावे। परमागम का व्याख्यान सुना जावे। इस प्रकार जैसा आगम में गाया गया है (कहा गया है) अनेक भावों में दूसरा व्रत रखा जावे (धारण किया जावे)। इस प्रकार तीसरे अणुव्रत को कहता हूँ। भव्य पुरुष के द्वारा पराया धन नहीं हरा जावे। रखी हुई, गिरी हुई, भूली हुई स्थापित, दूसरों से प्राप्त, अथवा छोड़ी हुए अथवा घर में प्राप्त अल्प या बहुत किसी भी वस्तु को बहियों में कूट लेखन करके, हठपूर्वक किसी का मरण चाहकर भी किंचित् पर वस्तु नहीं ली जावे। बिना दिया हुआ सब त्यागा जावे।
- घत्ता - दूसरों के लिए प्रिय-धन-धान्य, सारस्वरूप मणि, द्विपद (मनुष्य), चतुष्पद जानवर, मणि-रत्न, तिनके के समान (तुच्छ) मानें, उनको नहीं चुरावें, जिनेन्द्र के वचनों को आराधे । 161
1.17
(अचौर्याणुव्रत संबंधी व्यावहारिक चिन्तन और लक्ष्मी - स्वभाव - व्याख्यान)
(हे) भव्य पुरुष ! कहता हूँ (कवि कहता है) - दूसरों से पदार्थ - उत्तम कपड़ा, तुरंग, मनुष्य, महल (आदि) पदार्थ मांगकर अथवा मूल्य से (यदि) नहीं पाता है (तो) पर द्रव्य से भव्य पुरुष द्वारा लुभाया नहीं जावे। चोरी के लिए जाने में मूल (कारण) (लोभ) (है) उस लोभ को जिनमन्दिर में पढ़ो। साझेदार मनुष्य को कोई भी नहीं ठगे (धोखा देवे), इष्ट मित्र बनाकर उसे कौन दुखाता है ? किसी का अधिकार भी नहीं हरा जावे, खुशामद करके कुछ भी न लिया जावे। भाई, पुत्र, पिता को ठगकर (और) धीरे-धीरे घर का संचय करके अपने कुटुम्ब का धन नहीं हरे (क्योंकि) घरविहीन के द्वारा भण्डार नहीं किया जाता है। एक का हरकर दूसरों को नहीं दिया जावे। अपना दोष भी दूसरों के (पर) नहीं लाया जावे। आती हुई अपनी किसी भी हानि को संतप्त होते हुए पराये सिर पर नहीं कही जावे। निश्चय से अपने राजदण्ड के अंश को दूसरों के सिर से नहीं चढ़ाया जावे (सिर पर नहीं स्थापित किया जावे)। राजकीय वचन (स्वीकृति) का लेखन-कार्य करते हुए समचित्त से भाव-दोष छोड़ो।
घत्ता - लक्ष्मी क्षयशील और हासवान है। संसार में किसी की भी नहीं है। चिन्ता नहीं की जावे। राजकुल में दण्डित की जाती है, चोरों द्वारा चुराई जाती है, यह किसी की भी नहीं कही जाती है (गयी है) ।17।