Book Title: Jain Vidya 14 15
Author(s): Pravinchandra Jain & Others
Publisher: Jain Vidya Samsthan

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Page 103
________________ 96 1.16 जैनविद्या 14-15 अप्पर णवि सलहणु चाहिज्जइ । अवरहं पुणु सुह गुणु स लहिज्जइ ॥ कासु वि अण-उवयारु ण किज्जइ । पर उवयारु लहु वि मणिज्जइ ॥ जीवहं जिणपहु उवएसिज्जइ । पाउ - करंतु धम्मि लाइज्जइ ॥ तेवंचिय जिणणाहु - थुणिज्जइ । परमागम वक्खाणु सुणिज्जइ ॥ इय अणेय भावहि वउ वीयउ । रक्खिज्जर जिह आगमि गीयउ ।। एवहि तिज्जउ कहिमि अणुव्वउ । परधणु णवि भव्वेण हरिव्वउ ॥ धरिउ-पडिउ-वीसरिङ- णिहत्तउ । किंपि वि वत्थु जं जि परु घित्त ॥ अहच्छंडिउ अह घरि संपायउ । अप्पु - वहुत्तु वि भो ले आयउ ॥ कूड्डु करेविणु लेखइ वाहिवि । हठु करि को वि मरंतउ चाहिवि ॥ पर पहूत्थु किंचि वि ण लइज्जइ । अण दिण्णउ सयलु वि वज्जिज्जइ ॥ घत्ता धणु कणु मणि सारउ, परहु पियारंड, दुप्पय चउपउ मणिरयणु । तिण समु मण्णिव्वड, तं ण हरिव्वड, आराहंतह जिण - वियणु ।। 16 ॥ 1.17 परहु पयत्थु कहिमि जिण सुंदरु । कप्पडुराच्छु तुरउ णरु मंदिरु || मग्गिउ अह मुल्लेण ण लब्भइ । पर दव्वहु भव्वे णउ लुब्भनं ॥ लोहमूलु चोरत्तणि गम्मइ । पठमउ लोहु वि तं जिणहम्मइ || झिरुण कवि वज्जिज्जइ । इट्ठ मित्तु करि कोण दुहिज्जइ ॥ वि कासु वि अहियारु हरिज्जइ । करि चाडत्तणु किंपि ण लिज्जइ ॥ भायउ पुत्तु पियरु वंचेविणु । सणइ सणइ गेहहो संचेविणु ॥ णिज कुडुंवहो धणु ण हरिव्वउ । घर विहिण्णु भंडारु ण किज्जइ ॥ एक्कहो हरिविण अण्णहु दिज्जइ । णवि णिय दोसु परहो लाइज्जइ ॥ कावि हाणि अप्पहो आवंतो । सा पर सिरि वुच्चइ ण तवंतो ॥ रायदंडु जं किर णिय अंसहो । तण्ण चडाविज्जइ पर सोसहो । रायकरारु णिवंधु करंतिहि । भाउ दोसु मुच्चई सम चित्तहि ॥ - घत्ता लच्छी खय हासु वि, भुवणि ण कासु वि, किज्जइ ण वि चिंत्तिज्जइ । राउलि दंडिज्जई, चोर मुसिज्जई, इम कासु वि ण कहिज्जइ ॥ 17 ॥

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