Book Title: Jain Vidya 14 15
Author(s): Pravinchandra Jain & Others
Publisher: Jain Vidya Samsthan
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94
जैनविद्या 14-15
1.14
सहसा दोसु ण कासु वि दिज्जइ । कन्जु अजाणिउ संभाविज्जइ । वयणु चविज्जइ करिसु णिरिक्खिउ । किज्जइ कज्जु सयलु सुपरिक्खिउ ।। जं जेहउ सवणिहि णिसुणिज्जइ । तं तेहउ ण कयावि भणिज्जइ । णिय पयणेहि दिठु छाविज्जइ । परहं दोसु णहु पुणु गाविज्जइ । दुव्वयणिहि सिखिको विण हम्मइ । माया भासहि को वि ण छम्मइ ।। अण्णु कुसंगह ण गवेसिज्जइ । कासु वि पुणु वोलणउ ण दिज्जइ ।। अह जइ केण वि किंपि विणासिउ । सो णवि किज्जइ अइ सताविउ । केण वि वुरउ सलज्जु पउत्तउ । तं पुणु उच्छल्लणह ण जुत्तउ ।। कासु वि वुरउ ण चित्ति धरिज्जइ । कहिमि कज्जि अइगाहु ण किज्जइ । भावदोस - वयणु वि वज्जिज्जइ । जणु जुत्सतहं कोडु ण किज्जइ ।।
घत्ता - इय वयणु असच्चउ, गय जण पच्चउ, वुहहि सयावि पमुच्चइ ।
सम्भाव सवच्छलु, परिवज्जियच्छलु, णिय परहिउ जगि वुच्चइ ।। 14॥
1.15
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अह जइ दोसु कोवि तुव देसइ । हुंतउ अणुहंतउ जि भणेसइ ॥ अह णिठुर दुव्वयणिहि तावइ । वम्मुल्लूरणु गालिउ दावइ । कडु अक्खरहि घरिणि णिब्भंसइ । णिच्च वि पोसणु-भरणु समिच्छइ ॥ दुव्वंधउ दुपुत्तु मणि कुद्धउ । णिद्धाडई वोलंतु विरुद्धउ । अह अवरोवि कोवि उवहासइ। जइ रुद्धा जणेरि इम भासइ । जइ घर माणसु तुव विग्गोवइ । चाडु णरसहु मारण ढोवइ । इय चिर कय पावें संपज्जइ । सव्वु वि सम भावेण खमिज्जइ । दूसहु पर खर वयणु सहंतहं । हुइ पावखउ णरहं महंतहं । सोत्ते तडउ दुक्खु सुहु अग्गइ। पढमउ सग्गु पुणु वि पंचमगइ । अह ण खमइ तउ दुक्खु भयंकरु । सहइ कोइ कय कम्म परंपरु ।।
पत्ता - गव्वियहं अगव्वहं, जीवहं सव्वहं, छुडु आलाउ ण किज्जइ
पर कियउ विसेसें, मुक्क किलेसें, अप्पुणु सव्वु खमिज्जइ ॥15॥

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