Book Title: Jain Vidya 14 15
Author(s): Pravinchandra Jain & Others
Publisher: Jain Vidya Samsthan
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जैनविद्या 14-15
1.10
सुणि जीव सुहंकरु जिण - वयणु । जइ लोडहि अविचलु सुहरयणु ॥ तहं केण वि पिल्लिउ परिहसिउ । जइ वंधिउ पिट्टि उवहसिउ ।। सुय वंधव पियर विओइयउ । जइ केण वि कहमि परन्जियउ ॥ फेडिउ दंडाविउ णावियउ। जइ माणभंगु तुव दावियउ । रिउणा ढोयउ णिव मारिणउ । सहु कारणे अहव अकारणउ । एयाइ महावइ पावियउ। अवरेहिमि दुक्खिहि तावियउ ॥ तउ कोहु करे विणु मणि सुइरो। मातेण सरिसु वंधइ - वइरो॥ मातहि मारणे उज्जमु करहि । तहो उप्परि कोहु ण मणि धरहि ।। पुव्वकिउ भुंजहि इउ सयलु । तुहु अरि मिसेण णिव पावफलु ।। सइ कम्मु करिवि रूसेहि किसू । तुहु लहहि सुहासुह कम्म - वसू ।
पत्ता - इउ हियइ मुणेविणु, कोहु हणेविणु, परकिउ दुक्खु जि जइ खमहि ।
सुअणत्तु लहेविणु, कम्मु डहेविणु, तउ सासम-सिव-सुह रमइ ॥10॥
1.11
सहु केण वि वइरु म हियइ धरि । अण उवयारहो उवयारु करि ॥ जइ धम्ममूलु जिणवरु चवइ । सा उत्तम खमइ ण संभवइ॥ विणु खमइ ण लब्भइ जीवदया। विणुताइ णरिंद वि णरइ गया ।। इम चिंतिवि उत्तम खम करहि । चिर संचिउ कलिमलु णिज्जरहि ॥ अज्जहि ण कम्मु पुणु अवरु तुहु । भव - दुक्खहो मुच्चहि लहहि सुहु । पीडिज्जमाणु अवरेहिं जइ। खम छंडहि वइरिणि वद्धमई । तउ अवरु कम्मु अज्जहि असुहु । पुणु तहो फलेण अणु दुहु ॥ कुगइहि पावहि जम्मंतरइ । भवि-भवि दुक्खाइ णिरंतराइ ।। तो वरि णिम्मल खम उद्धरहि । कलि रुक्ख मूलुच्छेउ वि करहि ॥ कोहाणलेण तप्पंति णरा। खम णीरें सीयल हुंति परा ॥
घत्ता - संसार असारहो, वहु - दुह - भारहो, एम होइ णिग्गमु परइ ।
विवरीउ करंतहं, दुम्मइंवंतहं, जावह दुक्खु परंपरई ।। 11॥

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