Book Title: Jain Vidya 14 15
Author(s): Pravinchandra Jain & Others
Publisher: Jain Vidya Samsthan
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88
जैनविद्या 14-15
1.8
जिण - वयणु जीव हियवइ धरहि । तुहु सयलह जीवह दय करहि ॥ भउजणहि ण कासु वि पसु - णरहो। अप्पाणु जेम रक्खहि पर हो । जीवह वहु हियइ ण चितंवहो। मा कहिमि मारि वयणु वि चवहो । काएण ण घायहि को वि पुणु । इय तिविहें पालहि जीव गणु ॥ पर दिण्ण गालि घाउ वि खमहो । उट्ठउ कोहाणलु उवसमहो । सहसा कोवेण ण परु हणहो । वंधव तहं विड सम रिस गणहो । अप्पाण मेरु परु तिण सरिसु । मा भावहि माण कसाय वसु ॥ छलु वलु करेवि वंचेवि जणु। मा हिंसहि लोह णिसण्ण मणु ।। घरु गामु णयरु वणु मा डहहि । पर - हम्मुमाणु मा सद्दहहि ॥ जण-पीडणि मा अणुणइ करहो। किं वित्थरु हिंसा परिहरहो ।
घत्ता - जो हिंस - विवन्जिउ, वुहयण - पुज्जिउ, धम्मु तिलोय पियारउ ।
किज्जइ सम भावें, विहुणिय पावें, सो भव - दुक्ख - णिवारउ ॥8॥
1.9
संसारि - जीव जे थिय विविहं । तस - थावर भेयहिं ते दुविहं ।। इक्किंदिय - थावर कम्म - वस। वे तय चउ पंचिंदिय वि तस ।। जसु सयल णिवित्ति ण संभावइ । तस हिंस - विरत्तउ सो हवइ । थावर वि ण विणु कज्जि वहइ । पढमाणुव्वय दय विहियमइ ॥ आरंभहो णवि उच्छाहमणु। कज्जइमि करंतु णतवई जणु ॥ ण वि कूडभाउ णवि वंक मइ । पंजल मणु कय सम्भाव रइ॥ परलोयह तह घर माणुसह । जो विउल चित्तु परणिय वसह । सव्वह जीवह हिउ चिंतवइं । कासु वि उप्परि णउ दुट्ठमइ ॥ छिंदणु-भेयणु - वंधणु - दमणु । ण करइ वावारु वि - जण-तवणु ॥ पह जन्तु णिरिक्खिवि देइ पउ । रक्खइ आयरिण अहिंसवउ ।
घत्ता - वज्जिय पर वंचणु, कय जिणु अंचणु, जो सव्वहं वीसास-घरु ।
सो उवसामिय मणु, आणंदिय जणु, धरइ अहिंसा-धम्म - वरु ॥१॥

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