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जैनविद्या 14-15
1.6 (सम्यक्-असम्यक्-गुरु-माहात्म्य)
यदि देव-वन्दित चरणवाला कोई भी गुरु प्रत्यक्ष दिखाई नहीं देता है तो ऐसे कुत्सित, मायावी, असंयमी गुरु की वन्दना मत करो। कुत्सित गुरु पाप दूर नहीं करता है। (ठीक है) नौका का कार्य क्या शिला करती है ? ऐसा जानकर रति-समरण को विनाश करनेवाले परम यतीश्वर के चरण को ध्याओ। भव्यजनों के मन को सम्बोधनेवाले (वे) संसार-सागर से पार होने के लिए नौका स्वरूप हैं । माया, मोह, प्रमाद से अदूषित तथा पाँचवें यथाख्यातचारित्र से विभूषित, स्थिर परम समाधि में स्थित, केवलज्ञानरूपी लक्ष्मी-सुख में उत्कंठित भुजंगस्वरूप भोगों को त्यागकर परमपदरूपी गृह के अवयव स्वरूप यति के गुणों का तनिक स्मरण करने से तुम्हारी परोक्ष में महाविनय होती है, पाप-पुण्य की निर्जरा होती है। मुनि के गुणों का चिन्तन करने में सुख उत्पन्न होता है।
___ घत्ता - केवलज्ञानरूपी गुणों से विभूषित, दोषों से रहित तथा आगम-नेत्रधारी का अनुसरण करो। तुम (उन्हें)- गुरु मानो (और) हृदय में धारण करो। अन्य सभी (गुरुओं) का त्याग करो।6।
1.7 (धर्म-स्वरूप और अष्टमूलगुण-विवेचन)
हे जीव ! विशुद्ध परिणामों से युक्त होकर सुनो - तुम्हें धर्म समझाता हूँ। जो कुगुरु और कुआगम कहा गया है, वह धर्म नहीं होता है (यह) भलीप्रकार से कहा गया है । जो जिनेन्द्र केवली द्वारा कहा गया है और गणधर देव के द्वारा पृथ्वी पर (जिसका) विस्तार किया गया, श्रुतकेवलियों ने (जिसे) परम्परा से प्राप्त किया और निर्ग्रन्थ आचार्यों ने (जो) जन-जन में कहा, (जो) सांसारिक मलिनता का क्षय करके जीवों को शिवसुखरूपी फल दर्शाता है, वह धर्म है। जिनेन्द्र देव और निर्गन्थ गुरु तथा दस लक्षणात्मक और अहिंसात्मक धर्म पर जो निश्चय से भावपूर्वक श्रद्धान करता है वह स्पष्ट है (कि) सम्यक्त्व रत्न पाता है। एकाग्र भाव और मन से सुनो - पंच उदम्बर फल और मद्य, मांस, मधु के त्यागसहित मूलगुण के तुम्हें (ये) आठ भेद कहे हैं। पहले इन आठों को जो त्यागता है वह उत्तम मनुष्य ही उत्तर गुण धारण करता है ।
घत्ता - मद्य, मांस, मधु और पंच उदम्बर फल विविध जीवोत्पत्ति की खदान हैं। (ये) भवदुःख सागर दर्शाते हैं। (अतः) मन, वचन, काय, तीनों प्रकार से त्यागो, चखो भी नहीं ।7।