Book Title: Jain Vidya 14 15
Author(s): Pravinchandra Jain & Others
Publisher: Jain Vidya Samsthan

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Page 92
________________ जैनविद्या 14-15 85 1.4 (जस पूजा तस फल दिग्दर्शन) जो कोई भी जैसे (देव) को पूजता, नमस्कार करता है वह मरकर संसार में वैसा ही होता है। जो पशुओं को पूजता है वह पशु होता है, (जैसे) चोरों की सेवा करनेवाला चोर होता है। सर्प की पूजा करनेवाला सर्प होता है। भिखारी के साथ में कोई दिखाई नहीं देता। चेतन और अचेतन इत्यादि विविध भेदवाले अनेक कुत्सित देव हैं। जो मूढबुद्धि (उन्हें) पूजता है, नमस्कार करता है वह चतुर्गति के दुःखों का पात्र होता है । इस प्रकार जानकर जो कुदेवों को त्याग देता है और जगत के स्वामी जिनेन्द्र की सेवा करता है वह मरकर देवलोक में उत्पन्न होता है। (जो) जगत के गुरु को पूजता है (वह) देव-पूज्य होता है; देवांगनाओं और विमान-सुख का अनुभव करने के पश्चात् राजा होता है और इसके पश्चात् मोक्ष पाता है। चित्त में ऐसा जानकर संसार का छेदन करनेवाले अर्हन्त देव की आराधना करके जन्म, जरा और मरण दुःखों को त्यागकर अनन्त निर्वाण-सुख पाओ । पत्ता- हे जीव ! देवों की परीक्षा करके जो मैंने कहा है वह निश्चय जानो। एकाग्र मन से सुनो - गुरु इस प्रकार कहते हैं, तुझे समझाता हूँ।4। 1.5 (असम्यक् एवं सम्यक् गुरु-स्वरूप) ___ जैनधर्म, जिनमार्ग और जिनव्रतों से रहित, इन्द्रिय-विषयों से भग्न, क्रोधाग्नि से प्रदीप्त, दृढमानी, माया में रत, लोभरूपी दावाग्नि से दग्ध, कुत्सित, धर्म में आलसी, ब्रह्मचर्य-विहीन, हाथ ऊपर करके प्रतिदिन दीन के समान (आचरणशील), दूसरों को अज्ञानधर्म प्रकट करनेवाले, शोषणकारी और डुबानेवाले बोल दूसरों को बोलनेवाले को गुरु नहीं जानो। उसे महान गुरु जानिए जो दर्शन, ज्ञान और चारित्रधारी है, जो निश्चय मोक्षमार्ग को जानता है, अपने मार्ग में माया से रहित दिखाई देता, क्रोध और मान भंग कर तथा लोभ को हटाकर मैत्रीभावपूर्वक विरोध नाश करके जो जीव-दया करता है, सत्यभाषी है, बिना दिये लेने का त्यागी है, ब्रह्मचर्य में दृढ है, जो इन्द्रिय-विषयों को जीतकर परिग्रह से मुक्त है, जो कभी भी चारित्र भंग नहीं करता, जो परीषह सहकर और राग गलाकर शत्रु, सुख के संबंध में मध्यस्थ भावी होता है। घत्ता - एकाकी, दिगम्बर रहकर संवर करके आर्त और रौद्रध्यान से जो रहित तथा धर्म और शुक्ल ध्यान से सहित होते हैं उन गुरु को प्राप्त करो और चरण पूजो ।।।

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