Book Title: Jain Vidya 14 15
Author(s): Pravinchandra Jain & Others
Publisher: Jain Vidya Samsthan

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Page 90
________________ जैनविद्या 14-15 1.2 (ग्रन्थ-रचना - उद्देश्य ) आज भी प्रवर्तमान तीर्थंकर का यश तीनों लोकों में प्राप्त करते हुए जिनेन्द्र की स्तुति करता हूँ । श्रेष्ठ गुरु मुनियों द्वारा (इस जैनधर्म का ) विस्तार किया जावे और श्रावकों तथा श्रेष्ठ राजाओं के द्वारा पालन किया जावे, अभिमानरहित होकर भव्यजनों द्वारा प्राप्त किया जावे। विद्वान् भव्यजनों द्वारा हमारे समान नहीं ( रहा जावे)। जिनेन्द्र के तीर्थ को पाकर तथा मान गलाकर मैं अपने द्वारा स्वयं अपने को सम्बोधता हूँ। जैसे जीव आकाश में अकेला रहता है, वैसे ही संसार में सभी जीव रहते हैं (इसमें ) सन्देह नहीं । मैं किसी का नहीं हूँ और न कोई मेरा है। आत्मा से सभी को अकेला जानो । इस कारण मेरा कोई भी दुर्जन नहीं है। सभी द्रव्य और अर्थ से बँधे हैं। ऐसा जानकर चित्त को इस प्रकार करो जैसा श्री सर्वज्ञ देव कहते हैं - सभी राग-द्वेष त्यागो। विरोधभाव का नाश करके मैत्रीभाव करो। पर द्रव्यों के विषयजनित ममता (मोह) को त्यागो और मोहजाल का नाशकर समता भाव भाओ । 883 घत्ता - हे जीव ! चारों गतियों में भ्रमते हुए और चिरकाल से प्रतिकूल रसों का आस्वादन करते हुए उससे महान् दुःख सहते हो। यदि तुम (उससे छूटना चाहते हो (तो) जैनधर्म और तत्त्व ग्रहण करो | 21 1.3 (निजोपदेश - हेतु एवं संसार - मुक्ति - चिन्तन) कोई भी मनुष्य कंधे पर बैठाकर संसार काट करके शिवनगर में नहीं ले जावेगा । यदि ऐसा दूसरों को उपदेश करूँगा तो मनुष्य के निम्न भाव भाता हूँ (मनुष्य की निम्नता को प्राप्त करूँगा । इस कारण से स्वयं को कहता हूँ (और) अपना अपने द्वारा उद्धार करता हूँ। हे जीव ! सुनोसघन दुःखकारी संसाररूपी वन में भ्रमते हुए यदि दीन-शिथिल हो गये हो तो जिनेन्द्र का शासन ग्रहण करके जीवादि पदार्थों पर श्रद्धान करो । मिथ्यात्व दोषों के मंथन में पड़े हुए मोह से जड़ित कुदेवों को छोड़ो। अज्ञान से अन्धे महान घमण्डी, पाँचों इन्द्रियों के विषय-रसों के लम्पटी ग्यारस देवादि (तथा) अन्य कुदेवों को नमन मत करो, त्याग करो । बहुत क्या एक जिनेन्द्र ही श्रेष्ठ हैं। उन्हें छोड़कर अन्य देवों को मत पूजो। (यदि) जिनेश्वर देव दूसरों का निर्माण करते हैं तो स्पष्ट है (कि) दूसरे उसे नहीं रचते हैं । घत्ता • जिनेन्द्र के गुण-समूह और इतर देवों विचार किये बिना सभी गुण ग्रहण कीजिए और दोष गुण-दोषों को जाने बिना तथा मन में त्यागिए 13 1

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