Book Title: Jain Vidya 14 15
Author(s): Pravinchandra Jain & Others
Publisher: Jain Vidya Samsthan
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जैनविद्या 14-1
1.2
जिणु-थुणमि जगत्तय - लद्धमाणु । अज्ज वि जसु तित्थु - पयट्टमाणु ॥ वित्थारिज्जइ गुरु - मुणिवरेहि। पालिन्जइ 'सावय - णरवरेहि ॥ लब्भइ भवियणहि अगव्वएहिं । मा विउ अम्हारिसु भव्वएहिं ।। जिणु - तित्थु लहि वि हउ गलिय दप्पु । संवोहमि सइ अप्पेण अप्पु ॥ हउ एक जीउ जारिसु, णभंति । जगि सव्व जीव तारिसु वसंति ॥ णवि कासु वि हउ ण वि कोवि मज्झु । अप्पेण णिहल एकल्ल वुझु । तिणि कारणि महु दुज्जणु ण कोवि । दव्वत्थें वंद्धउ सयल लेवि ॥ इउ जाणिवि चित्त करेवि एउ । जं भासइ सिरि सव्वण्हु - देउ । सव्वह सहुच्छंडहि राउ - दोसु । करि मित्तिभाउ णासिय विरोहु ।। परदव्व - विसयच्छंडहि ममत्तु । हणि मोहजालु भावहि समत्तु ।।
घत्ता - जिणधम्मु लहेविणु, तच्चु गहेविणु, जइच्छाडेसहि जीव तुहु ।
___ चउ गइहि भमंतउ, चिरसु-रसंतउ, ताइ सहेसि महंतु-दुहु ॥2॥
__1.3
काटि वि संसारहो, सिवणयरे, मणु को वि ण लेसइ खंधि करे।
उवएसु कहेसमि जइ परहो, ता भावइ अह भावइ णरहो ॥ तिणि कारणि अप्पहो वज्जरम्मि । अप्पाणउ अप्पें उद्धरम्मि । सुणि जीव भमंतउ दुक्ख - घणें । जइ दोणउ तुह संसारवणे ॥ तउ करि जिणसासण संगहणु। जीवाइ पयत्थह सद्दहणु ॥ छंडहि कुदेउ मोहें - जडिउ । मिच्छत्त - दोस - घंघलि पडिउ ।। अण्णाणंधउ दप्पुब्भडउ । पंचिदिय - सुहरस - लंपडउ ॥ एयारस - देवह मा णवहि । अवरइमि कुदेवइ परिचवहि ।। किं वहुणा एकु जि परम जिणु । इयरइ मापुज्जहि तेण विणु ॥ देवत्तु जिणेसर परिघडइं। अवरह तं फुडु वि ण संघडइ ।
घत्ता - जिणवर-गुण-णियरह, देवहं इयरहं, गुणु-दोसु वि जाणेविणु।
गुणु सयलु गहिज्जइ, दोसु चइज्जइ, मणि- विचारु माणे विणु ॥3॥

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